4) मूसा, प्रभु की आज्ञानुसार, पत्थर की वह दो पाटियाँ हाथ में लिये बहुत सबेरे सीनई पर्वत पर चढ़ा।
5) प्रभु बादल के रूप में उतर कर उसके पास आया और अपना "प्रभु" नाम प्रकट किया।
6) प्रभु ने उसके सामने से निकल कर कहा, ''प्रभुः प्रभु एक करूणामय तथ कृपालु ईश्वर है। वह देर से क्रोध करता और अनुकम्पा तथा सत्यप्रतिज्ञता का धनी है।
9) और कहा, ''प्रभु; यदि मुझ पर तेरी कृपादृष्टि है, तो मेरा प्रभु हमारे साथ चले। ये लोग हठधर्मी तो हैं, किन्तु तू हमारे अपराध तथा पाप क्षमा कर दे और हमें अपनी निजी प्रजा बना ले।''
11) भाइयो, अलविदा! आप पूर्ण बनें, हमारा उपदेश हृदयंगम करें, एकमत रहें, शान्ति बनाये रखें, और प्रेम तथा शान्ति का ईश्वर आपके साथ होगा।
12) शान्ति के चुम्बन से एक दूसरे का अभिवादन करें। सब ईश्वर-भक्त आप लोगों को नमस्कार कहते हैं।
13) प्रभु ईसा मसीह का अनुग्रह, ईश्वर का प्रेम तथा पवित्र आत्मा की सहभागिता आप सब को प्राप्त हो!
16) ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता हे, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे।
17) ईश्वर ने अपने पुत्र को संसार में इसलिए नहीं भेजा कि वह संसार को दोषी ठहराये। उसने उसे इसलिए भेजा कि संसार उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त करे।
18) जो पुत्र में विश्वास करता है, वह दोषी नहीं ठहराया जाता है। जो विश्वास नहीं करता, वह दोषी ठहराया जा चुका है; क्योंकि वह ईश्वर के एकलौते पुत्र के नाम में विश्वास नहीं करता।
ईश्वर एक है, उसमें तीन जन हैं - पिता परमेश्वर, पुत्र परमेश्वर एवं पवित्र आत्मा परमेश्वर। ईश्वर में तीन जन होते हुए भी उनमें एक स्वाभाव है। इसी कारण हम ईश्वर को पवित्र त्रित्व कहते हैं। ये तीनों शाश्वत है तथा अंनत काल से विद्यमान है। इनमें एक आगे एवं दूसरा पीछे, कम या ज्यादा आदि जैसी कोई भी मानवीय सोच नहीं है। अंतर केवल इनका मानवीय इतिहास में प्रकट होने का तरीका, घटनाएं एवं कालखण्ड है।
पिता और आत्मा को कभी किसी ने नहीं देखा। लोगों ने केवल ईश्वरकी वाणी को ही सुना तथा उनके पवित्र आत्मा का अनुभव किया था। ईश्वरका दर्षन भी अप्रत्यक्ष एवं प्रतीकात्मक ही था। स्वर्गदूत के रूप में (उत्पति 32:29,) झाडी में जलती हुयी आग (निर्गमन 3:2) अग्नि (निर्गमन 19:17) बादलों में (निर्गमन 345) मंद समीर की सरसराहट में (1राजाओं 19:12) आदि। इसी प्रकार पवित्र आत्मा के प्रकटीकरण का उल्लेख भी अनेक अवसरों पर मिलता है। यूसुफ में (उत्पति 41:38) बिलआम (गणना 24:2) ओतनीएल (न्यायकर्ताओं 3:10) समसोन (न्यायकर्ताओं 15:14) साऊल (1 समूएल 10:6 एवं 11:6) दाऊद (1समूएल 16:13) योब (योब 33:4) नबी एलियाह (1राजाओं 18:12) नबी एजे़किएल (एजे़किएल 37:14 एवं 39:29) आदि।
नये विधान में येसु के आगमन से ईश्वर ने मानव के रूप में अपना रूप भी प्रकट किया। इस प्रकार पवित्र त्रित्व के मानव इतिहास में प्रकटीकरण की प्रक्रिया पूरी हुयी। येसु ईश्वर के पुत्र थे तथा बात का साक्ष्य स्वयं धर्मग्रंथ देता है। ’’वे महान होंगे और सर्वोच्च प्रभु के पुत्र कहलायेंगे।...वे पवित्र होंगे और ईश्वरके पुत्र कहलायेंगे।’’ (लूकस 1:32,35) "निश्चय ही यह ईश्वरका पुत्र था।’’ (मती 27:54) "यह मेरा प्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।’’ (मारकुस 9:7) "ईश्वरके पुत्र! हम से आप को क्या" (मती 8:29) "आप मसीह हैं आप जीवंत ईश्वर के पुत्र है’’।(मती 16:16) "वह वास्तव में ईश्वर थे...ईसा मसीह प्रभु हैं।’’ (फिलिप्पियों 2:6,11) "हमने उसे सुना है। हमने उसे अपनी आंखों से देखा है। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से उसका स्पर्श किया है। ....यह शाश्वत जीवन, जो पिता के यहाँ था और हम पर प्रकट किया गया हैं।’’(1 योहन 1:1-2)
जिस प्रकार इन्द्रधनुष के रंगों को हम अलग नहीं कर सकते हैं, उसी प्रकार पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का एक ही अस्तित्व है। जहाँ पिता है, वहाँ पुत्र और पवित्र आत्मा भी है। येसु के बपतिस्मा के समय उनके बारे में बादल में से पिता की वाणी, पवित्र आत्मा का कपोत के रूप में उन पर उतरना, पवित्र त्रित्व की उपस्थिति को दर्शाती है। ’’बपतिस्मा के बाद ईसा तुरन्त जल से बाहर निकले। उसी समय स्वर्ग खुल गया और उन्होंने ईश्वर के आत्मा को कपोत के रूप में उतरते और अपने ऊपर ठहरते देखा। और स्वर्ग से यह वाणी सुनाई दी, "यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।’’ (मती 3:16-17) जब येसु कहते हैं, कि मैं पवित्र आत्मा को भेजूँगा तो इसका यह मतलब नहीं है कि पवित्र आत्मा येसु साथ नहीं है। जब सूरज चमकता है तो चाँद और तारे दिखाई नहीं देते है। किन्तु वे उसी प्रकार बने रहते हैं। इसी प्रकार येसु के दुनिया में रहते समय पवित्र आत्मा का अनुभव मानव नहीं कर पाता था। येसु की प्रतिज्ञा पवित्र आत्मा के अनुभव प्रदान करने की थी।
पवित्र त्रित्व को मानवीय बुद्धि से समझना अत्यंत कठिन है। यह ऐसा गूढ़ रहस्य है जिसे हम विश्वास तथा प्रार्थना के द्वारा आत्मा की प्रेरणा से दिल की गहराईयों में अनुभव कर सकते हैं। जब जब हम क्रूस का चिन्ह बनाते हैं तब हम पवित्र त्रित्व पर अपना विश्वास प्रकट करते हैं।
✍ -फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल
God is one and there are three persons in one God- God the father, Son and the Holy Spirit. They are three different persons yet their nature is same. That’s why we address them as holy Trinity. They are eternal and exit from the eternity. There is no human thinking of measure or greatness such as big or small, senior or junior etc. The only visible difference can be noticed in the order of their revelation to the world, incidents and the period.
Nobody has seen the father and the spirit. People had only heard his voice and experienced the presence of the holy spirit. God’s apparitions too were indirect or symbolic. As angel (Genesis 32:29), burning bush (Ex.3:2), fire (Ex.19:17) clouds (Ex.34:5) gentle breeze (1 Kings 19:12) etc. Similarly the revelation of Holy Spirit is also mentioned quite many times. In Joseph (Gen.41:38), Balaam (Numbers 24:2), Othniel (Judges 3:10), Samson (Judges 15:14), Saul (1Samuel 10:6 and 11:6), David (1Samuel 16:13), Job (Job33:4), Prophet Elijah (1Kings 18:12), Prophet Ezekiel (Ez.37:14 and 39:29) etc.
In the New Testament with the advent of Jesus God was revealed to the humanity in the human form. With that the revelation of the Trinity to the humanity was complete. Jesus was the son of God and the Scripture bears witness to this fact. in Luke 1:32 and 35 it reveals, He will be great, and will be called the Son of the Most High,…he will be called Son of God. at the foot of Cross the centurion will confess, ‘Truly this man was God’s Son!’ (Mt.27:54). During the Transfiguration the voice from heaven came, ‘This is my Son, the Beloved; listen to him! (Mark 9:7) the demonic shouted, ‘What have you to do with us, Son of God? (Mt. 8:29) Peter confessed, ‘You are the Messiah, the Son of the living God.’ (Mt.16:16) St. Paul affirms, “he was in the form of God,… (and),that Jesus Christ is Lord, (Phil.2:6,11) St. John writes and testifies, “We have heard, what we have seen with our eyes, what we have looked at and touched with our hands,…and testify to it,…the eternal life that was with the Father and was revealed to us (1John 1:1-2)
Just as we can’t differentiate the colours of rainbow from it, in the same way Father, son and holy Spirit are three in one. Different yet one. Where there is father there is also Son and the Spirit. At the baptism of Jesus, the Father’s voice from the clouds and the coming of the Holy Spirit in the form of dove on Jesus was the testimony of their Trinitarian presence. “And when Jesus had been baptized, just as he came up from the water, suddenly the heavens were opened to him and he saw the Spirit of God descending like a dove and alighting on him. And a voice from heaven said, ‘This is my Son, the Beloved, with whom I am well pleased.” (Mt.3:16-17) When Jesus says I will send the Holy Spirit that does not mean that the Holy Spirit was not with Jesus at that time. when sun rises the moon and the stars are not seen but they remain. Same way the Holy Spirit was with the Lord Jesus and Jesus promised to send it in much more powerful and emphatic way.
With our human knowledge and understanding we can never comprehend the mystery of the Trinity. We can only beseech the Lord in in faith and prayer to grant us experience and understanding the Holy Trinity. In fact each time we make sign of the cross we express our faith in the Trinitarian God.
✍ -Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal