5) फि़लिप समारिया के एक नगर जा कर वहाँ मसीह का प्रचार करता था।
6) लोग उसकी शिक्षा पर अच्छी तरह ध्यान देते थे, क्योंकि सब उसके द्वारा दिखाये हुए चमत्कारों की चर्चा सुनते या उन्हें स्वयं देखते थे।
7) दुष्ट आत्मा ऊँचे स्वर से चिल्लाते हुए बहुत-से अपदूतग्रस्त लोगों से निकलते थे और अनेक अर्ध्दांगरोगी तथा लंगड़े भी चंगे किये जाते थे;
8) इसलिए उस नगर में आनन्द छा गया।
14) जब येरूसालेम में रहने वाले प्रेरितों ने यह सुना कि समारियों ने ईश्वर का वचन स्वीकार कर लिया तो उन्होंने पेत्रुस और योहन को उनके पास भेजा।
15) वे दोनों वहाँ गये और उन्होंने समारियों के लिए यह प्रार्थना की कि उन्हें पवित्र आत्मा प्राप्त हो।
16) पवित्र आत्मा अब तक उन में से किसी पर नहीं उतरा था। उन्हें केवल प्रभु ईसा के नाम पर बपतिस्मा दिया गया था।
17) इसलिए पेत्रुस और योहन ने उन पर हाथ रखे और उन्हें पवित्र आत्मा प्राप्त हो गया।
15) अपने हृदय में प्रभु मसीह पर श्रद्धा रखें। जो लोग आपकी आशा के आधार के विषय में आप से प्रश्न करते हैं, उन्हें विनम्रता तथा आदर के साथ उत्तर देने के लिए सदा तैयार रहें।
16) अपना अन्तःकरण शुद्ध रखें। इस प्रकार जो लोग आप को बदनाम करते हैं और आपके भले मसीही आचरण की निन्दा करते हैं, उन्हें लज्जित होना पड़ेगा।
17) यदि ईश्वर की यही इच्छा है, तो बुराई करने की अपेक्षा भलाई करने के कारण दुःख भोगना कहीं अच्छा है।
18) मसीह भी एक बार पापों के प्रायश्चित के लिए मर गये, धर्मी अधर्मियों के लिए मर गये, जिससे वह हम लोगों को ईश्वर के पास ले जाये, वह शरीर की दृष्टि से तो मारे गये, किन्तु आत्मा द्वारा जिलाये गये।
15) यदि तुम मुझे प्यार करोगे तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे।
16) मैं पिता से प्रार्थना करूँगा और वह तुम्हें एक दूसरा सहायक प्रदान करेगा, जो सदा तुम्हारे साथ रहेगा।
17) वह सत्य का आत्मा है जिसे संसार ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वह उसे न तो देखता और न पहचानता है। तुम उसे पहचानते हो, क्योंकि वह तुम्हारे साथ रहता और तुम में निवास करता है।
18) मैं तुम लोगो को अनाथ छोडकर नहीं जाऊँगा, मैं तुम्हारे पास आऊँगा।
19 थोडे ही समय बाद संसार मुझे फिर नहीं देखेगा। तुम मुझे देखोगे क्योंकि मैं जीवित रहूँगा और तुम भी जीवित रहोगे।
20) उस दिन तुम जान जाओगे कि मैं पिता में हूँ, तुम मुझ में हो और मैं तुम में।
21) जो मेरी आज्ञायें जानता और उनका पालन करता है, वही मुझे प्यार करता है और जो मुझे प्यार करता है, उसे मेरा पिता प्यार करेगा और उसे मैं भी प्यार करूँगा और उस पर अपने को प्रकट करूँगा।
उस समय हमें काफ़ी दुःख होता है जब हमारा कोई प्रियजन हमसे विदा लेता है। उनके साथ बिताए पल याद आने लगते हैं -ख़ुशी के पल, दुःख के पल, हर तरह की भावनाओं से भरे हुए पल। उनकी सभी बातें याद आने लगती हैं। आज के सुसमाचार में भी हम कुछ ऐसा ही दृश्य देखते हैं। प्रभु येसु अपनी मृत्यु एवं पुनरुत्थान के बाद शिष्यों के साथ समय बिताते हैं, उनकी हिम्मत बँधाते हैं, उन्हें सांत्वना देते हैं। जाते-जाते उन्हें महान उपहार देने की प्रतिज्ञा करते हैं, वह उपहार जो शायद प्रभु येसु की कमी को पूरा कर देगा।वह उपहार और सहायक कोई और नहीं बल्कि प्रभु का आत्मा है।
किसी को एक सहायक की आवश्यकता क्यों पड़ती है? जब कोई व्यक्ति बहुत बड़ा, महान या बहुत कठिन कार्य करता है तो उसे और दूसरे व्यक्ति की ज़रूरत पड़ती है, उसकी मदद की ज़रूरत पड़ती है।एक सहायक की ज़रूरत पड़ती है। क्योंकि उस सहायक के बिना या तो वह काम अत्यधिक कठिन होगा या असम्भव होगा। अर्थात प्रभु येसु अपने शिष्यों के लिए एक सहायक भेजने की प्रतिज्ञा इसलिए करते हैं, क्योंकि वे अपने शिष्यों को कुछ बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपना चाहते हैं, जिसमें सहायक की ज़रूरत पड़ेगी।प्रभु येसु भी पिता ईश्वर का कार्य उसी सहायक की मदद से कर रहे थे। (लूकस ११:२०)। और यही सहायक सृष्टि के प्रारम्भ से संसार को बचाने के कार्य में सक्रिय भूमिका निभाता आ रहा है।
प्रभु येसु कहते हैं, “यदि तुम मुझे प्यार करोगे, तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे।” (योहन १४:१५)। अर्थात इस सहायक को ग्रहण करने की यही शर्त है कि हमें ईश्वर को प्यार करना है; प्रभु येसु को प्यार करना है। सहायक भेजने की यह प्रतिज्ञा ईश्वर को प्यार करने वाले लोगों के लिए है। ईश्वर को प्यार करने का प्रमाण यह है कि हम उनकी आज्ञाओं का पालन करेंगे। ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करने से ही हम प्रभु येसु द्वारा प्रतिज्ञात सहायक अर्थात पवित्र आत्मा को ग्रहण करने के योग्य बन पाएँगे। अयोग्य व्यक्ति पवित्र आत्मा को ग्रहण नहीं कर सकता। और इस सहायक के बिना ईश्वर का कार्य सफलतापूर्वक नहीं कर सकते।
सहायक प्रदान करने का यह उपहार सारी दुनिया के लोगों के लिए नहीं बल्कि प्रभु के चुने हुए लोगों के लिए है। उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए जो प्रभु को प्यार करता है। जब सत्य का वह आत्मा हमारे अन्दर निवास करेगा, तो हम अपने जीवन में जीवित प्रभु येसु को अनुभव कर पाएँगे, प्रभु येसु हमें प्यार करेंगे और पिता ईश्वर भी हमें प्यार करेंगे। आओ हम प्रभु के उस महान उपहार को ग्रहण करने के लिए अपने आप को सार्थक रूप से तैयार करें। ईश्वर इसमें हमारी सहायता करे। आमेन।
✍ - फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
When somebody from our loved ones leaves us for some time or long time, we feel great pain. When saying good-bye, we recall and re-live every pleasant moment that we spent with them - moments of happiness and sadness, moments filled with variety of emotions. Everything minute of life spent with them comes to the replay screen of our mind. We see a similar scene of farewell and sadness in today’s gospel. After his death and resurrection Jesus spends time with his disciples, he consoles them and gives them courage to face the situation. He even promises to give the greatest gift that they could have, a give that could fill the vacant space after Jesus’s departure. That gift and advocate is none other than the Spirit of the Lord, the Holy Spirit.
Why would someone need an advocate or assistant or helper? When a person ventures into a very difficult and great task, he may need another person’s help, he will need someone to assist him. Because perhaps without an assistant or helper that task could either be too difficult to complete of impossible to be done by one person. Jesus promises to send a helper, probably because he wants to give the disciples some very big or great task or responsibility, where a helper will be needed. He himself was doing the work of his heavenly father with the help of the same helper. (Lk. 11:20). And it is the same helper or advocate that is active from beginning of creation in the work of saving and sanctifying the world.
Jesus says, “If you love me, you will keep my commandments.” (Jn. 14:15). The required condition to receive this advocate is to love God above everything else; love Jesus whole heartedly. The promise of sending a helper is for those who love God and obey his commandments. The fact that we love God can’t only be certified by the fact that we obey his commandments. By obeying God’s commandments can we become worthy to receive the helper as promised by Jesus. Unholy people are not worthy to receive the Holy Spirit. And without the helper, we cannot fulfil the responsibility of doing God’s work. We cannot work for God without the assistance of the promised helper.
The promise of sending a helper is not for all, it is only for the chosen people of God; for every person who loves and obeys God. When that helper, the Spirit of Truth will dwell within us, then only we will be able to experience the Risen Christ’s presence in our lives, Jesus will love us and so will the Father. Let us prepare ourselves to receive that great gift of God in a worthy manner. Amen.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)