चक्र ’अ’ - पास्का का दूसरा इतवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित 2:42-47

42) नये विश्वासी दत्तचित्त होकर प्रेरितों की शिक्षा सुना करते थे, भ्रातृत्व के निर्वाह में ईमानदार थे और प्रभु -भोज तथा सामूहिक प्रार्थनाओं में नियमित रूप से शामिल हुआ करते थे।

43) सबों पर विस्मय छाया रहता था, क्योंकि प्रेरित बहुत-से चमत्कार एवं चिन्ह दिखाते थे।

44) सब विश्वासी एक हृदय थे। उनके पास जो कुछ था, उसमें सबों का साझा था।

45) वे अपनी चल-अचल सम्पत्ति बेचते थे और उसकी कीमत हर एक की ज़रूरत के अनुसार सब में बाँटते थे।

46) वे सब मिलकर प्रतिदिन मन्दिर जाया करते थे और निजी घरों में प्रभु-भोज में सम्मिलित होकर निष्कपट हृदय से आनन्दपूर्वक एक साथ भोजन करते थे।

47) वे ईश्वर की स्तुति किया करते थे और सारी जनता उन्हें बहुत मानती थी। प्रभु प्रतिदिन उनके समुदाय में ऐसे लोगों को मिला देता था, जो मुक्ति प्राप्त करने वाले थे।

दूसरा पाठ : 1 पेत्रुस 1:3-9

3) धन्य है ईश्वर, हमारे प्रभु ईसा मसीह का पिता! मृतकों में से ईसा मसीह के पुनरुत्थान द्वारा उसने अपनी महती दया से हमें जीवन्त आशा से परिपूर्ण नवजीवन प्रदान किया।

4) आप लोगों के लिए जो विरासत स्वर्ग में रखी हुई है, वह अक्षय, अदूषित तथा अविनाशी है।

5) आपके विश्वास के कारण ईश्वर का सामर्थ्य आप को उस मुक्ति के लिए सुरक्षित रखता है, जो अभी से प्रस्तुत है और समय के अन्त में प्रकट होने वाली है।

6) यह आप लोगों के लिए बड़ेे आनन्द का विषय है, हांलांकि अभी, थोड़े समय के लिए, आपको अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़ रहे हैं।

7) यह इसलिए होता है कि आपका विश्वास परिश्रमिक खरा निकले। सोना भी तो आग में तपाया जाता है और आपका विश्वास नश्वर सोने से कहीं अधिक मूल्यवान है। इस प्रकार ईसा मसीह के प्रकट होने के दिन आप लोगों को प्रशंसा, सम्मान तथा महिमा प्राप्त होगी।

8) (8-9) आपने उन्हें कभी नहीं देखा, फिर भी आप उन्हें प्यार करते हैं। आप अब भी उन्हें नहीं देखते, फिर भी उन में विश्वास करते हैं। जब आप अपने विश्वास का प्रतिफल अर्थात् अपनी आत्मा की मुक्ति प्राप्त करेंगे, तो एक अकथनीय तथा दिव्य उल्लास से आनन्दित हो उठेंगे।

सुसमाचार : योहन 20:19-31.

19) उसी दिन, अर्थात सप्ताह के प्रथम दिन, संध्या समय जब शिष्य यहूदियों के भय से द्वार बंद किये एकत्र थे, ईसा उनके बीच आकर खडे हो गये। उन्होंने शिष्यों से कहा, "तुम्हें शांति मिले!"

20) और इसके बाद उन्हें अपने हाथ और अपनी बगल दिखायी। प्रभु को देखकर शिष्य आनन्दित हो उठे। ईसा ने उन से फिर कहा, "तुम्हें शांति मिले!

21) जिस प्रकार पिता ने मुझे भेजा, उसी प्रकार मैं तुम्हें भेजता हूँ।"

22) इन शब्दों के बाद ईसा ने उन पर फूँक कर कहा, "पवित्र आत्मा को ग्रहण करो!

23) तुम जिन लोगों के पाप क्षमा करोगे, वे अपने पापों से मुक्त हो जायेंगे और जिन लोगों के पाप क्षमा नहीं करोगे, वे अपने पापों से बँधे रहेंगे।

24) ईसा के आने के समय बारहों में से एक थोमस जो यमल कहलाता था, उनके साथ नहीं था।

25) दूसरे शिष्यों ने उस से कहा, "हमने प्रभु को देखा है"। उसने उत्तर दिया, "जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।

26) आठ दिन बाद उनके शिष्य फिर घर के भीतर थे और थोमस उनके साथ था। द्वार बन्द होने पर भी ईसा उनके बीच आ कर खडे हो गये और बोले, "तुम्हें शांति मिले!"

27) तब उन्होने थोमस से कहा, "अपनी उँगली यहाँ रखो। देखो- ये मेरे हाथ हैं। अपना हाथ बढ़ाकर मेरी बगल में डालो और अविश्वासी नहीं, बल्कि विश्वासी बनो।"

28 थोमस ने उत्तर दिया, "मेरे प्रभु! मेरे ईश्वर!"

29) ईसा ने उस से कहा, "क्या तुम इसलिये विश्वास करते हो कि तुमने मुझे देखा है? धन्य हैं वे जो बिना देखे ही विश्वास करते हैं।"

30) ईसा ने अपने शिष्यों के सामने और बहुत से चमत्कार दिखाये जिनका विवरण इस पुस्तक में नहीं दिया गया है।

31) इनका ही विवरण दिया गया है जिससे तुम विश्वास करो कि ईसा ही मसीह, ईश्वर के पुत्र हैं और विश्वास करने से उनके नाम द्वारा जीवन प्राप्त करो।

📚 मनन-चिंतन

आज पास्का का दूसरा इतवार है। यह दिन दिव्य करूणा इतवार के रूप में मनाया जाता है, जहॉं पर कलीसिया हमें ईश्वर के असीम करूणा पर मनन करने के लिए आमंत्रित करती है। संत फॉस्तिना को व्यक्तिगत रूप में येसु की दिव्य करूणा का दर्शन मिला। हमारा ईश्वर दयालु ईश्वर है जिसकी दया सबसे परे और अतुलनीय है। हमारे द्वारा किया गया पाप चाहे कितना भी बड़ा या कितना भी गंभीर पाप क्यो न हो, परंतु ईश्वर की दया इतना बड़ा है कि उसके सामने हमारे बड़े से बड़े पाप नगण्य हैं। लेकिन हमें ईश्वर की दयालुता ग्रहण करने के लिए हमें अपने पापों के प्रति पश्चात्ताप करते हुए हमें उससे दया मॉंगनी चाहिए। ईश्वर के दिव्य करूणा में हमारे सारे पाप क्षमा हो जाते हैं। ईश्वर की दिव्य करूणा हमें येसु में दिखती है, जिन्होने हमारे पापों के लिए कू्रस पर मर कर अपने ह्दय से दिव्य करूणा को बहाया। उस करूणा को अनुभव करने के लिए हमें अपने पापों पर पश्चात्ताप करते हुए उस करूणा को येसु से मॉगना चाहिए।

आज के सुसमाचार में येसु अपने आप को शिष्यों के सामने प्रकट करते है। येसु की मृत्यु के बाद सभी शिष्यों ने डर कर अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया था। वे सब बहुत डरे हुए थे। इस परिस्थिति में येसु आते है और शिष्यों को तीन चीज़े प्राप्त की। सर्वप्रथम जो प्रभु ने उस कमरे में आकर दिया वह है शांति; उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हे शांति मिले’’। दूसरा चीज़ जो शिष्यों को प्राप्त हुई वह था आनंद; ‘‘प्रभ्ज्ञु को देखकर शिष्य आनन्दित हो उठे।’’ तीसरा चीज़ जो उन्हे प्राप्त हुआ वह था पवित्र आत्मा। येसु ने उन पर फूॅंक कर कहा, ‘पवित्र आत्मा को ग्रहण करो।’ येसु ने उस कमरे में आकर पूरे वातावरण को परिवर्तित कर दिया। उन्होनें डर के माहौल को शांति, आनंद एवं पवित्र आत्मा देकर शांति और सासह में बदल दिया।

जब यह सब घटित हुआ उस समय थोमस शिष्यों के साथ नहीं था। परंतु जब शिष्यों ने उसे सबकुछ बताया तब वह उन बातों पर विश्वास करने में असमर्थ रहा। वह कहता है, ‘‘जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूॅं, कीलों की जगह पर अपनी उॅंगली न रख दूॅं और उनकी बगल मे अपना हाथ न डाल दॅंू तब तक मैं विश्वास नहीं करूॅंगा।’’ यह सब इसलिए क्योंकि थोमस येसु को व्यक्तिगत तौर पर अनुभव करना चाहता था। आठ दिन बाद येसु येसु फिर से उनके बीच प्रकट हुए, इस समय थोमस उनके साथ था। जब येसु ने थोमस को अपने घाव दिखाने के लिए बुलाया तब थोमस ने उन पर विश्वास करते हुए संसार के लिए अपना व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा महान घोषणा किया, ‘‘मेरे प्रभु! मेरे ईश्वर!’’ अभी तक येसु थोमस के लिए एक चमत्कार दिखाने वाला व्यक्ति था, चंगाई देने वाला व्यक्ति था, अशुद्ध आत्मा निकालने वाला व्यक्ति था, एक गुरू था; परन्तु अब से थोमस के लिए येसु उसका प्रभु और ईश्वर था।

थोमस का व्यक्तिगत अनुभव से हमें पता चलता है कि येसु प्रभु और ईश्वर है। उन्होने येसु को अनुभव किया और उनमें विश्वास किया। हमारे लिए येसु कौन है? क्या वह चमत्कार करने वाला या चंगाई करने वाला या गुरू या फिर ईश्वर है? या फिर हम भी इंतजार कर रहें हैं कि येसु को हमारे जीवन में कुछ चमत्कार करने का इंतजार कर रहें है जिससे हम उसमें विश्वास कर सकें। येसु ने कहा, ‘‘धन्य हैं वे जो बिना देखे ही विश्वास करते हैं।’’ ईश्वर ने यह वचन हम सभी के लिए बोला है। ईश्वर ने हमें विश्वास को उपहार दिया हैं। आईये हम येसु में विश्वास करते हुए उसे अपना व्यक्तिगत मसीहा और ईश्वर माने जो हमें व्यक्तिगत रूप से प्यार करता है। आमेन

- फादर डेन्नीस तिग्गा


📚 REFLECTION

Today is the 2nd Sunday of Easter. This day is celebrated as the Divine Mercy Sunday, where Church invites us to meditate on the infinite mercy of God. Divine Mercy of Jesus is personally revealed to St. Faustina. Our God is a merciful God whose mercy is unique and incomparable. The sins committed by anyone of us how much grave or how much biggest sin it may be, but His Mercy is so large that in front of his mercy our greatest sin is smallest as that of microscope but we need to ask and receive is mercy by repenting for our sins. It is in his divine mercy all our sins are forgiven. His divine mercy is seen in Jesus who died for our sins on the cross and making his divine mercy flow from his heart. In order to experience his mercy we need to ask his mercy by repenting on our sins.

In today’s Gospel we find Jesus revealing himself to the disciples. We know that after the death of Jesus, all the disciples were frightened and due to fear they were hiding inside the closed room. They all were full of fear. In that situation Jesus enters three things to disciples. First thing what he gave as he entered the closed room is Peace. He said Peace be with you. The second thing what the disciples received by Jesus was the Joy, they were filled with joy, third thing what they received was the Holy Spirit. Jesus breathed on them and said, ‘Receive the Holy Spirit.’ Jesus entered into that situation and changed the whole situation. He changed their fear into peace and courage by giving them peace, joy and Holy Spirit.

When this happened Thomas was not with the disciples. But when disciples told everything, he fails to believe on what they said. He says, “Unless I can see the holes that the nails made in his hands and can put my finger into the holes they made, and unless I can put my hand into his side, I refuse to believe.” This is all because he wanted to experience Jesus personally. After eight days Jesus appeared to them again and this time Thomas was with them and when Jesus called Thomas to see the marks of the wounds, Thomas believed in him and gave the biggest revelation to the whole world, by saying to Jesus, “My Lord and my God” Till now Jesus was for him a person who was working miracles, a person who was healing people, a person who was casting demons, a person who was teacher; but now for him Jesus was his Lord and his God.

The personal experience of Thomas tells us that Jesus is the Lord and God. He experienced Jesus and he believed. Who is Jesus for us? Is he a miracle worker, healer, teacher or God? Or are we waiting for some divine intervention of Jesus in our life so that we may believe in him. Jesus says, “Blessed are those who have not seen and yet believe.” God has given us the gift of believe. Let us believe in Jesus and make him our personal Saviour and God who loves us personally. Amen

-Fr. Dennis Tigga


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Praise the Lord!