1) प्रभु ने अब्राम से कहा, ''अपना देश, अपना कुटुम्ब और पिता का घर छोड़ दो और उस देश जाओ, जिसे मैं तुम्हें दिखाऊँगा।
2) मैं तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा, तुम्हें आशीर्वाद दूँगा और तुम्हारा नाम इतना महान् बनाऊँगा कि वह कल्याण का स्रोत बन जायेगा - जो तुम्हें आशीर्वाद देते हैं, मैं उन्हें आशीर्वाद दूँगा।
3) जो तुम्हें शाप देते है, मैं उन्हें शाप दूँगा।
4) तुम्हारे द्वारा पृथ्वी भर के वंश आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।'' तब अब्राम चला गया, जैसा कि प्रभु ने उस से कहा था और लोट उसके साथ गया। जब अब्राम हारान छोड़ कर चला गया, तो उसकी अवस्था पचहत्तर वर्ष की थी।
8) तुम न तो हमारे प्रभु का साक्ष्य देने में लज्जा अनुभव करो और न मुझ से, जो उनके लिए बन्दी हूँ, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर भरोसा रख कर तुम मेरे साथ सुसमाचार के लिए कष्ट सहते रहो।
9) ईश्वर ने हमारा उद्धार किया और हमें पवित्र जीवन बिताने के लिए बुलाया। उसने हमारे किसी पुण्य के कारण नहीं, बल्कि अपने उद्देश्य तथा अपनी कृपा के कारण ही ऐसा किया। वह कृपा अनादिकाल से ईसा मसीह द्वारा हमें प्राप्त थी,
10) किन्तु अब वह हमारे मुक्तिदासा ईसा मसीह के आगमन से प्रकट हुई है। ईसा ने मृत्यु का विनाश किया और अपने सुसमाचार द्वारा अमर जीवन को आलोकित किया है।
1) छः दिन बाद ईसा ने पेत्रुस, याकूब और उसके भाई योहन को अपने साथ ले लिया और वह उन्हें एक ऊँचे पहाड़ पर एकान्त में ले चले।
2) उनके सामने ही ईसा का रूपान्तरण हो गया। उनका मुखमण्डल सूर्य की तरह दमक उठा और उनके वस्त्र प्रकाश के समान उज्ज्वल हो गये।
3) शिष्यों को मूसा और एलियस उनके साथ बातचीत करते हुए दिखाई दिये।
4) तब पेत्रुस ने ईसा से कहा, "प्रभु! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! आप चाहें, तो मैं यहाँ तीन तम्बू खड़ा कर दूगाँ- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।"
5) वह बोल ही रहा था कि उन पर एक चमकीला बादल छा गया और उस बादल में से यह वाणी सुनाई पड़ी, "यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ; इसकी सुनो।"
6) यह वाणी सुनकर वे मुँह के बल गिर पडे़ और बहुत डर गये।
7) तब ईसा ने पास आ कर उनका स्पर्श किया और कहा, "उठो, डरो मत"।
8) उन्होंने आँखें ऊपर उठायी, तो उन्हें ईसा के सिवा और कोई नहीं दिखाई पड़ा।
9) ईसा ने पहाड़ से उतरते समय उन्हें यह आदेश दिया, "जब तक मानव पुत्र मृतकों मे से न जी उठे, तब तक तुम लोग किसी से भी इस दर्शन की चरचा नहीं करोगे"।
प्रभु येसु के रूपांतरण के दौरान शिष्य येसु का स्वर्गीक रूप और महिमा देखते हैं। वे उन्हें मूसा और एलियाह से बातें करते हुये देखते पाते तथा पिता की वाणी, ’’यह मेरा प्रिय पुत्र है इसकी सुनो’’ को सुनते हैं जो येसु को उन्हें अपना पुत्र घोषित करती है। रूपांतरण के दौरान पेत्रुस कहते हैं, ’’प्रभु! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! आप चाहें, तो मैं यहाँ तीन तम्बू खड़ा कर दूगाँ- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।’’। (मत्ती 9ः4) पेत्रुस इस दिव्य दृश्य को देखकर भाव-विभोर हो गये थे। वे इससे दूर होना नहीं चाहते थे। वे इस अनुभव को और अधिक लंबा करना चाहते थे। किन्तु यह येसु का उद्देश्य नहीं था क्योंकि इसके बाद ईसा उन्हें पहाड से नीचे ले आते हैं।
रूपांतरण एक भविष्य के सूचक और तैयारी की घटना थी। इसके द्वारा येसु शिष्यों को आगे ले जाना चाहते थे। वे चाहते थे कि शिष्य उन्हें पहचाने तथा उनका विश्वास सांसारिक घटनाक्रम से विचलित न हो।
येसु उन्हें बताना चाहते थे कि उनका भावी दुखभोग पिता की योजना और इच्छा है। येसु चाहते थे कि शिष्य इस दुखभोग और मरण में ईश्वर की उपस्थिति को देखे तथा समझे। येसु ने स्वयं के दुखभोग एवं क्रूसमरण को पिता की इच्छा मानकर स्वीकार किया तथा वहन भी किया। जब हम अपने जीवन में दुख झेलते हैं तो शायद हम दुखित हो जाते हैं। हम दूसरों पर दोष लगाते तथा कुढकुढाते है। ऐसी स्थिति में अपने ईश्वर को भूल जाते हैं। किन्तु इस रूपांतरण की घटना हमें सिखाती है कि जीवन के दुखों तथा अभावों को हमें ईश्वर की योजना से जोडकर तथा उसे पिता ईश्वर को समर्पित कर उसे ईश्वर की इच्छा मानकर उसे ख््राीस्तीय साहस के साथ स्वीकार करना है।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
During the transfiguration the apostles Peter, James and John see the heavenly glory of Jesus. They see and hear Moses and Elijah talking to Jesus about his impending suffering and death and the voice of the Father declaring, ‘this is my beloved son, listen to him.’ Peter was wonderstruck by the turn of events. He didn’t know what to say, yet he says, “it is good be here, we shall raise three tents, one for you and one for Moses and Elijah. Peter wanted to prolonged this experience. He didn’t want it to end soon. But the Lord had something specific purpose and lessons to be taught. He led them back to plain.
Transfiguration was symbolic and forward looking event. It was meant to prepare the apostles for the suffering and death of Jesus. Jesus wanted them to learn that his suffering and death is the part of God’s plan and is the will of the father.
When we see suffering from God’s point of view we would find great comfort and consolation in life during our trials. However if we grumble and indulge in blame game then it produces deep sorrow and bitterness in life. We need to challenge our mind set and remind that all our sufferings are not hidden from God. We ought to see the hand of God present in our present situation and circumstances. And believe that he would do everything to rescue us.
✍ -Fr. Ronald Vaughan