चक्र ’अ’ -चालीसा काल का पहला इतवार



📒 पहला पाठ : उत्पत्ति 2:7-9; 3:1-7

2:7) प्रभु ने धरती की मिट्ठी से मनुष्य को गढ़ा और उसके नथनों में प्राणवायु फूँक दी। इस प्रकार मनुष्य एक सजीव सत्व बन गया।

8) इसके बाद ईश्वर ने पूर्व की ओर, अदन में एक वाटिका लगायी और उस में अपने द्वारा गढ़े मनुष्य को रखा।

9) प्रभु-ईश्वर ने धरती से सब प्रकार के वृक्ष उगायें, जो देखने में सुन्दर थे और जिनके फल स्वादिष्ट थे। वाटिका के बीचोंबीच जीवन-वृक्ष था और भले-बुरे के ज्ञान का वृक्ष भी।

3:1) ईश्वर ने जिन जंगली जीव-जन्तुओं को बनाया था, उन में साँप सब से धूर्त था। उसने स्त्री से कहा, ''क्या ईश्वर ने सचमुच तुम को मना किया कि वाटिका के किसी वृक्ष का फल मत खाना''?

2) स्त्री ने साँप को उत्तर दिया, ''हम वाटिका के वृक्षों के फल खा सकते हैं।

3) परन्तु वाटिका के बीचोंबीच वाले वृक्ष के फलों के विषय में ईश्वर ने यह कहा - तुम उन्हें नहीं खाना। उनका स्पर्श तक नहीं करना, नहीं तो मर जाओगे।''

4) साँप ने स्त्री से कहा, ''नहीं! तुम नहीं मरोगी।''

5) ईश्वर जानता है कि यदि तुम उस वृक्ष का फल खाओगे, तो तुम्हारी आँखें खुल जायेंगी। तुम्हें भले-बुरे का ज्ञान हो जायेगा और इस प्रकार तुम ईश्वर के सदृश बन जाओगे।

6) अब स्त्री को लगा कि उस वृक्ष का फल स्वादिष्ट है, वह देखने में सुन्दर है और जब उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है, तो वह कितना लुभावना है! इसलिए उसने फल तोड़ कर खाया। उसने पास खड़े अपने पति को भी उस में से दिया और उसने भी खा लिया।

7) तब दोनों की आँखें खुल गयीं और उन्हें पता चला कि वे नंगे हैं। इसलिए उन्होंने अंजीर के पत्ते जोड़-जोड़ कर अपने लिए लंगोट बना लिये।

📕 दूसरा पाठ : रोमियों 5:12-19

12) एक ही मनुष्य द्वारा संसार में पाप का प्रवेश हुआ और पाप द्वारा मृत्यु का। इस प्रकार मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गयी, क्योंकि सब पापी है।

13) मूसा की संहिता से पहले संसार में पाप था, किन्तु संहिता के अभाव में पाप का लेखा नहीं रखा जाता हैं।

14) फिर भी आदम से ले कर मूसा तक मृत्यु उन लोगों पर भी राज्य करती रही, जिन्होंने आदम की तरह किसी आज्ञा के उल्लंघन द्वारा पाप नहीं किया था। आदम आने वाले मुक्तिदाता का प्रतीक था।

15) फिर भी आदम के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं हैं। यह सच है कि एक ही मनुष्य के अपराध के कारण बहुत-से लोग मर गये; किंतु इस परिणाम से कहीं अधिक महान् है ईश्वर का अनुग्रह और वह वरदान, जो एक ही मनुष्य-ईसा मसीह-द्वारा सबों को मिला है।

16) एक ही मनुष्य के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं हैं। एक के अपराध के फलस्वरूप दण्डाज्ञा तो दी गयी, किंतु बहुत-से अपराधों के बाद जो वरदान दिया गया, उसके द्वारा पाप से मुक्ति मिल गयी हैं।

17) यह सच है कि मृत्यु का राज्य एक मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप-एक ही के द्वारा- प्रारंभ हुआ, किंतु जिन्हें ईश्वर की कृपा तथा पापमुक्ति का वरदान प्रचुर मात्रा मे मिलेगा, वे एक ही मनुष्य-ईसा मसीह-के द्वारा जीवन का राज्य प्राप्त करेंगे।

18) इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस तरह एक ही मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप सबों को दण्डाज्ञा मिली, उसी तरह एक ही मनुष्य के प्रायश्चित्त के फलस्वरूप सबों को पापमुक्ति और जीवन मिला।

19) जिस तरह एक ही मनुष्य के आज्ञाभंग के कारण सब पापी ठहराये गये, उसी तरह एक ही मनुष्य के आज्ञापालन के कारण सब पापमुकत ठहराये जायेंगे।

📙 सुसमाचार : लूकस 4:1-11

1) ईसा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर यर्दन के तट से लौटे। उस समय आत्मा उन्हें निर्जन प्रदेश ले चला।

2) वह चालीस दिन वहाँ रहे और शैतान ने उनकी परीक्षा ली। ईसा ने उन दिनों कुछ भी नहीं खाया और इसके बाद उन्हें भूख लगी।

3) तब शैतान ने उन से कहा, "यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो इस पत्थर से कह दीजिए कि यह रोटी बन जाये"।

4) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, "लिखा है-मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है"।

5) फिर शैतान उन्हें ऊपर उठा ले गया और क्षण भर में संसार के सभी राज्य दिखा कर

6) बोला, "मैं आप को इन सभी राज्यों का अधिकार और इनका वैभव दे दूँगा। यह सब मुझे दे दिया गया है और मैं जिस को चाहता हूँ, उस को यह देता हूँ।

7) यदि आप मेरी आराधना करें, तो यह सब आप को मिल जायेगा।"

8) पर ईसा ने उसे उत्तर दिया, "लिखा है-अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो और केवल उसी की सेवा करो"।

9) तब शैतान ने उन्हें येरूसालेम ले जा कर मन्दिर के शिखर पर खड़ा कर दिया और कहा, "यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो यहाँ से नीचे कूद जाइए;

10) क्योंकि लिखा है-तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा कि वे तुम्हारी रक्षा करें

11) और वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे"।

📚 मनन-चिंतन

प्रलोभन हमारे जीवन में परीक्षा की घडी होते हैं। इस दौरान हमें ईश्वर पर विश्वास करते हुये दृढ़ता दिखानी चाहिये कि जो ईश्वर ने कहा है उसी में हमारी भलाई है। पवित्र धर्मग्रंथ हमें सिखाता है कि किस प्रकार अनेक लोगों ने प्रलोभन के दौरान विश्वास तथा आज्ञा में दृढ रहकर उन पर विजय पायी तथा इसके विपरीत कितनों ने प्रलोभन में गिर कर आज्ञा भंग का पाप किया।

हमारे आदि माता-पिता, आदम और हेवा प्रलोभन में गिरने वालों का उदाहरण है। उन्होंने ईश्वर की आज्ञा - इस ’’वृक्ष का फल नहीं खाना, क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे’’ (उत्पति 2:17) - को तोडा। यदि वे केवल इसी बात पर दृढ रहते कि ईश्वर ने जो कहा है उसी में भलाई है तो वे संशय और प्रलोभन में नहीं पडते। राजाओं क प्रथम ग्रंथ अध्याय 13 में हम यूदा के नबी के पतन की घटना पाते हैं। वह कहता हैं ’’प्रभु की वाणी द्वारा मुझे यह आज्ञा मिली है कि तुम न तो खाओगे, न पियोगे और न उस मार्ग से लौटोगे, जिस पर से तुम चल कर आये हो।’’ (1राजाओं 13:9) किन्तु आगे बढने पर उसे दूसरा व्यक्ति झूठ बोलकर फुसलाता है। इस प्रकार वह आज्ञा के विरूद्ध कार्य कर बैठता है और सिंह द्वारा रास्ते में मार डाला जाता है। लोट की पत्नी भी पीछे मुड कर देखने के अपने प्रलोभन से बच नहीं पाती है और नमक का खंभा बन जाती है।

इस प्रकार प्रलोभनों के दौरान हमें ईश्वर की आज्ञाओं की वैधता तथा उपयोगिता पर नहीं सोचना चाहिये बल्कि इस पर ध्यान देना चाहिये कि जो ईश्वर ने कहा है वह मेरे लिये उचित है। कई बार हम सोचते हैं, ’ऐसा करने से क्या हो जायेगा?’ या ’थोडा करके देखते है!’ किन्तु यही कमजोर सोच आगे जाकर हमारे पतन का कारण बनती है।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

“Temptations are the tests of life. During such occasions we need to be firm that our redemption lies in believing that following God will be in our favour. Holy Scripture teaches us how many people have survived the storms of temptation and at the same time how many have fallen from grace.

Our first parents Adam and Eve are the examples of failure in temptation. They were told a very simple rule, “…of the tree of the knowledge of good and evil you shall not eat, for in the day that you eat of it you shall die.” (Genesis 2:17) If they were to remain firm in this principle that following God is better than anything else then they could have triumphed. First book of the Kings chapter 13 presents before us a very interesting case of a prophet who told, “You shall not eat food, or drink water, or return by the way that you came”. However, he was duped and thus was devoured by a lion. The wife of Lot could not control her curiosity to look back and was turned into a pillar of sault.

During the temptations we don’t have to think about the legality and the vitality of the command but just keep our focus on God’s promise that he will do no harm. Often we think ‘what is the use of following it? Or ‘Little bit of liberty is okay.’ But such thoughts prove make us losers.

-Fr. Ronald Vaughan


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!