चक्र ’अ’ - खीस्त जयंती का दूसरा इतवार



पहला पाठ : प्रवक्ता 24:1-2,8-12

1) प्रज्ञा अपनी ही प्रशंसा कर रही है, वह अपने लोगों के बीच अपना ही गुणगान करती है,

2) वह सर्वोच्च की सभा में बोलती है और उसके सामर्थ्य के सामने अपना यश गाती है।

8) मैंने अकेले ही आकाशमण्डल का चक्कर लगाया और महागत्र्त की गहराई का भ्रमण किया।

9) मुझे समुद्र की लहरों पर, समस्त पृथ्वी पर,

10) सभी प्रजातियों और राष्ट्रों पर अधिकार मिला।

11) मैं उन सबों में विश्राम का स्थान ढूँढ़ती रहीं: मैं किसके यहाँ निवास करूँ?

12) तब विश्व के सृष्टा ने मुझे आदेश दिया, मेरे सृष्टिकर्ता ने मेरे रहने का स्थान निश्चित किया।



दूसरा पाठ : एफ़ेसियों 1:3-6,15-18

3) धन्य है हमारे प्रभु ईसा मसीह का ईश्वर और पिता! उसने मसीह द्वारा हम लोगों को स्वर्ग के हर प्रकार के आध्यात्मिक वरदान प्रदान किये हैं।

4) उसने संसार की सृष्टि से पहले मसीह में हम को चुना, जिससे हम मसीह से संयुक्त हो कर उसकी दृष्टि में पवित्र तथा निष्कलंक बनें।

5) उसने प्रेम से प्रेरित हो कर आदि में ही निर्धारित किया कि हम ईसा मसीह द्वारा उसके दत्तक पुत्र बनेंगे। इस प्रकार उसने अपनी मंगलमय इच्छा के अनुसार

6) अपने अनुग्रह की महिमा प्रकट की है। वह अनुग्रह हमें उसके प्रिय पुत्र द्वारा मिला है,

15) मैंने प्रभु ईसा में आप लोगों के विश्वास और सभी सन्तों के प्रति आपके भ्रातृप्रेम के विषय में सुना है। मैं आप लोगों के कारण ईश्वर को निरन्तर धन्यवाद देता

16) और अपनी प्रार्थनाओं में आप लोगों का स्मरण करता रहता हूँ।

17) महिमामय पिता, हमारे प्रभु ईसा मसीह का ईश्वर, आप लोगों को प्रज्ञा तथा आध्यात्मिक दृष्टि प्रदान करे, जिससे आप उसे सचमुच जान जायें।

18) वह आप लोगों के मन की आँखों को ज्योति प्रदान करे, जिससे आप यह देख सकें कि उसके द्वारा बुलाये जाने के कारण आप लोगों की आशा कितनी महान् है और सन्तों के साथ आप लोगों को जो विरासत मिली है, वह कितनी वैभवपूर्ण तथा महिमामय है,



सुसमाचार : योहन 1:1-18

1) आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था।

2) वह आदि में ईश्वर के साथ था।

3) उसके द्वारा सब कुछ उत्पन्न हुआ। और उसके बिना कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ।

4) उस में जीवन था, और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था।

5) वह ज्योति अन्धकार में चमकती रहती है- अन्धकार ने उसे नहीं बुझाया।

6) ईश्वर को भेजा हुआ योहन नामक मनुष्य प्रकट हुआ।

7) वह साक्षी के रूप में आया, जिससे वह ज्योति के विषय में साक्ष्य दे और सब लोग उसके द्वारा विश्वास करें।

8) वह स्वयं ज्यांति नहीं था; उसे ज्योति के विषय में साक्ष्य देना था।

9) शब्द वह सच्च ज्योति था, जो प्रत्येक मनुष्य का अन्धकार दूर करती है। वह संसार में आ रहा था।

10) वह संसार में था, संसार उसके द्वारा उत्पन्न हुआ; किन्तु संसार ने उसे नहीं पहचाना।

11) वह अपने यहाँ आया और उसके अपने लोगों ने उसे नहीं अपनाया।

12) जितनों ने उसे अपनाया, और जो उसके नाम में विश्वास करते हैं, उन सब को उसने ईश्वर की सन्तति बनने का अधिकार दिया।

13) वे न तो रक्त से, न शरीर की वासना से, और न मनुष्य की इच्छा से, बल्कि ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।

14) शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया। हमने उसकी महिमा देखी। वह पिता के एकलौते की महिमा-जैसी है- अनुग्रह और सत्य से परिपूर्ण।

15) योहन ने पुकार-पुकार कर उनके विषय में यह साक्ष्य दिया, "यह वहीं हैं, जिनके विषय में मैंने कहा- जो मेरे बाद आने वाले हैं, वह मुझ से बढ़ कर हैं; क्योंकि वह मुझ से पहले विद्यमान थे।"

16) उनकी परिपूर्णता से हम सब को अनुग्रह पर अनुग्रह मिला है।

17) संहिता तो मूसा द्वारा दी गयी है, किन्तु अनुग्रह और सत्य ईसा मसीह द्वारा मिला है।

18) किसी ने कभी ईश्वर को नहीं देखा; पिता की गोद में रहने वाले एकलौते, ईश्वर, ने उसे प्रकट किया है।


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