1) मरुस्थल और निर्जल प्रदेश आनन्द मनायें। उजाड़ भूमि हर्शित हो कर फले-फूले,
2) वह कुमुदिनी की तरह खिल उठे, वह उल्लास और आनन्द के गीत गाये। उसे लेबानोन का गौरब दिया गया है, करमेल तथा शारोन की शोभा। लोग प्रभु की महिमा तथा हमारे ईश्वर के प्रताप के दर्शन करेंगे।
3 थके-माँदे हाथों को शक्ति दो, निर्बल पैरों को सुदढ़ बना दो।
4) घबराये हुए लोगों से कहो- “ढारस रखों डरो मत! देखो, तुम्हारा ईश्वर आ रहा है। वह बदला चुकाने आता है, वह प्रतिशोध लेने आता है, वह स्वयं तुम्हें बचाने आ रहा है।“
5) तब अन्धों की आँखें देखने और बहरों के कान सुनने लगेंगे। लँगड़ा हरिण की तरह छलाँग भरेगा। और गूँगे की जीभ आनन्द का गीत गायेगी।
6) मरुस्थल में जल की धाराएँ फूट निकलेंगी, रेतीले मैदानों में नदियाँ बह जायेंगी,
10) प्रभु ने जिन्हें मुक्त कर दिया है, वे ही उस पर लौटेंगे। वे गाते-बजाते हुए सियोन लौटेंगे, उनके मुख पर अपार आनन्द खिल उठेगा। वे हर्ष और उल्लास के साथ लौटेंगे। दुःख और विलाप का अन्त हो जायेगा।
7) भाइयों। प्रभु के आने तक धैर्य रखें। किसान को देखें, जो खेत की कीमती फसल की बाट जोहता है। उसे प्रथम और अन्तिम वर्षा के आने तक धैर्य रखना पड़ता है।
8) आप लोग भी धैर्य रखें। हिम्मत न हारें, क्योंकि प्रभु का आगमन निकट है।
9) भाइयो! एक दूसरे की शिकायत न करें, जिससे आप पर दोष न लगाया जाये। देखिए, न्यायकर्ता द्वार पर खड़े हैं।
10) भाइयो! जो नबी प्रभु के नाम पर बोले हैं, उन्हें सहिष्णुता तथा धैर्य का अपना आदर्श समझें।
2) योहन ने, बन्दीगृह में मसीह के कार्यों की चरचा सुन कर, अपने शिष्यों को उनके पास यह पूछने भेजा,
3) "क्या आप वही हैं, जो आने वाले हैं या हम किसी और की प्रतीक्षा करें?"
4) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, "जाओ, तुम जो सुनते और देखते हो, उसे योहन को बता दो -
5) अंधे देखते हैं, लँगड़े चलते हैं, कोढ़ी शुद्ध किये जाते हैं, बहरे सुनते हैं, मुरदे जिलाये जाते हैं, दरिद्रों को सुसमाचार सुनाया जाता है,
6) और धन्य है वह, जिसक़ा विश्वास मुझ पर से नहीं उठता!"
7) वे विदा हो ही रहे थे कि ईसा जनसमूह से योहन के विषय में कहने लगे, "तुम लोग निर्जन प्रदेश में क्या देखने गये थे? हवा से हिलते हुए सरकण्डे को? नहीं!
8) तो, तुम क्या देखने गये थे? बढि़या कपड़े पहने मनुष्य को? बढि़या कपड़े पहनने वाले राजमहलों में रहते हैं।
9) आखिर क्यों निकले थे? नबी को देखने के लिए? निश्चय ही! मैं तुम से कहता हूँ, नबी से भी महान् व्यक्ति को।
10) यह वही है, जिसके विषय में लिखा है- देखो, मैं अपने दूत को तुम्हारे आगे भेजता हूँ। वह तुम्हारे आगे तुम्हारा मार्ग तैयार करेगा।
11) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - मनुष्यों में योहन बपतिस्ता से बड़ा कोई पैदा नहीं हुआ। फिर भी, स्वर्ग राज्य में जो सबसे छोटा है, वह योहन से बड़ा है।
पवित्र बाइबल में हम मानवजाति की मुक्ति के लिए ईश्वर की योजना को धीरे-धीरे पूरा होता हुआ देख सकते हैं। ईश्वर की योजना की इस श्रंखला की अंतिम कड़ी जो प्रभु येसु से जुड़ती है, योहन बपतिस्ता थी। वे पुराने विधान और नए विधान के बीच की कड़ी हैं। रेगिस्तान में उनका जीवन पुराने नियम से प्रस्थान का संकेत है और यर्दन नदी में येसु का बपतिस्मा नए युग के आगमन का प्रतीक भी है। यह पश्चाताप द्वारा पाप से एक प्रस्थान है जो संत योहन बपतिस्ता के संदेश का विषय था और येसु के उपदेश का विषय, ईश्वर के राज्य का आगमन था। यह स्पष्ट है कि प्रभु येसु ने ईश्वर के राज्य का शब्दों से ज़्यादा कर्मों से प्रचार किया। आज के सुसमाचार में योहन बपतिस्ता अपना कर्तव्य पूरा करके येसु को ईश्वर की योजना को आगे बढ़ाने के लिए कार्यभार सौंपने की अंतिम तैयारियां करते हैं।
कलकत्ता की संत तेरेसा कहती हैं, “हम सफल होने के लिए नही; बल्कि विश्वसनीय बनने के लिए बुलाये गये हैं”। यदि हम योहन बपतिस्ता के जीवन को देखें, तो हम पा सकते हैं कि वे इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करते हैं। मुक्ति की योजना में ईश्वर द्वारा उन्हें सौंपी गयी भूमिका के प्रति वे पूर्णत: वफादार थे। यह सच है कि वे दुनिया की नजरों में सफल नहीं थे। उनका विरोध किया गया, उन्हें कैद किया गया और बाद में उन्हें मार दिया गया। फिर भी उन्होंने विश्वासपूर्वक मसीह के अग्रदूत होने की भूमिका, जो उन्हें दी गयी थी, पूरी की। हमारे जीवन में भी, हमें विश्वसनीय होने की ज़रूरत है। यह जरूरी नहीं है कि हम सफल हों। कोई फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया हमारे साथ कैसा व्यवहार करती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम ईश्वर द्वारा हमारे लिए बताए गए मार्ग पर ईमानदारी से चलें और उस मार्ग पर विश्वासनीय बने रहें।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
In the Bible we can see the Plan of God for the redemption of humanity being gradually unravelled. The final link to Jesus, the fulfilment of God’s plan was John the Baptist. He is the link between the Old Testament and the New Testament. His life in the desert signifies a departure from the Old Testament and the Baptism of Jesus in the River Jordan signifies the arrival of the new era. It is a departure from sin by repentance which was preached by St. John and arrival in the Kingdom of God, the theme of the preaching of Jesus. It is clear that Jesus preached the Kingdom of God more eloquently by deeds than by words. In today’s Gospel we see the final preparations for the smooth transition from John the Baptist to Jesus.
St. Theresa of Calcutta says, “We are not called to be successful; we are called to be faithful”. If we look at the life of St. John the Baptist, we can see that St. John firmly believed in this. He was very faithful to the role entrusted to him by God in the plan of salvation. Apparently he was not successful in the eyes of the world. He was opposed, imprisoned and later beheaded. Yet he faithfully completed the role of being the precursor to the Messiah which was given to him. In our lives too, we are expected to be faithful, not necessarily successful. No matter how the world treats us, what is important to us is that we earnestly discern the path marked out for us by God and to be faithful on that path./p>
✍ -Fr. Francis Scaria