27) पुत्र! यदि यह तुम्हारी शक्ति के बाहर न हो, तो जिसके आभारी हो, उसका उपहार करो।
28) यदि तुम दे सकते हो, तो अपने पड़ोसी से यह न कहो, "चले जाओ! फिर आना! मैं तुम्हे कल दूँगा।"
29) जो पड़ोसी तुम पर विश्वास रखता है, उसके विरुद्ध षड्यन्त्र मत रचो।
30) जिसने तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं किया, उस मनुष्य से अकारण झगड़ा मत करो।
31) विधर्मी से ईर्ष्या मत करो और उसके किसी मार्ग पर पैर न रखों;
32) क्योंकि प्रभु दुष्टों से घृणा करता और सदाचारियों को अपना मित्र बना लेता है।
33) दुष्ट के घर पर प्रभु का अभिशाप पड़ता है, किन्तु वह धर्मी के घर को आशीर्वाद देता है।
34) प्रभु घमण्डियों को नीचा दिखाता और दीनों को अपना कृपापात्र बना लेता है।
35) बुद्धिमान् लोगों को सम्मान मिलेगा ओैर मूर्खों का तिरस्कार किया जायेगा।
16) "कोई दीपक जला कर बरतन से नहीं ढकता या पलंग के नीचे नहीं रखता, बल्कि वह उसे दीवट पर रख देता है, जिससे भीतर आने वाले उसका प्रकाश देख सकें।
17) "ऐसा कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, जो प्रकट नहीं होगा और ऐसा कुछ भी गुप्त नहीं है, जो नहीं फैलेगा और प्रकाश में नहीं आयेगा।
18) तो इसके सम्बन्ध में सावधान रहो कि तुम किस तरह सुनते हो; क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जिसे वह अपना समझता है।