29) उस समय प्रभु के आत्मा ने यिफ़्तह को प्रेरित किया। यिफ़्तह गिलआद और मनस्से को पार कर गिलआद के मिस्पा नामक स्थान पहुँचा और वहाँ से अम्मोनियों के यहाँ आया।
30) यिफ़्तह ने यह कहते हुए प्रभु के सामने यह मन्नत मानी, "यदि तू अम्मोनियों को मेरे हवाले कर देगा और मैं सकुशल लौटँूगा,
31) तो जो पहला व्यक्ति मेरी अगवानी करने मेरे घर से निकलेगा, वह प्रभु का होगा और मैं उसकी होम-बलि चढ़ाऊँगा।"
32) यिफ़्तह अम्मोनियों के विरुद्ध युद्ध करने निकला और प्रभु ने उन को उसके हवाले कर दिया।
33) यिफ़्तह ने अरोएर से मिन्नीत के आसपास तक बीस नगरों को जीता और आबेल-करामीम तक अम्मोनियों को बुरी तरह पराजित कर दिया। इस प्रकार अम्मोनी लोग इस्राएलियों के अधीन हो गये।
34) जब यिफ़्तह मिस्पा में अपने यहाँ लौटा, तो उसकी पुत्री द्वार से निकल कर डफली बजाते और नाचते हुए उसकी अगवानी करने आयी। वह उसकी अकेली सन्तान थी। उसके सिवा यिफ़्तह के न तो कोई पुत्र था और न कोई पुत्री।
35) यिफ़्तह ने उसे देखते ही अपने वस्त्र फाड़ कर कहा, "हाय! बेटी! तुमने मुझे मारा है! तुमने मुझे महान संकट में डाल दिया है। मैं प्रभु को वचन दे चुका हूँ। मैं उसे वापस नहीं ले सकता।"
36) उसने उत्तर दिया, "पिता जी! आप प्रभु को वचन दे चुके हैं। आप मेरे विषय में अपनी मन्नत पूरी कीजिए, क्योंकि प्रभु ने आप को अपने शत्रुओं से, अम्मोनियों से, बदला चुकाने का वरदान दिया है।"
37) इसके बाद उसने अपने पिता से कहा, "एक निवेदन है। मुझे दो महीने का समय दीजिए, जिससे मैं पहाड़ पर जा कर अपनी सखियों के साथ अपने कुँवारेपन का षोक मनाऊँ।"
38) उसने उत्तर दिया, "जाओ" और उसे दो महीनों के लिए जाने दिया। वह अपनी सखियों के साथ चली गयी और उसने पहाड़ पर अपने कुँवारेपन का षोक मनाया।
39) वह दो महीने के बाद अपने पिता के यहाँ लौटी और उसने उसके विषय में अपनी मन्नत पूरी कर दी। उसका कभी किसी पुरुष के साथ संसर्ग नहीं हुआ। इस प्रकार इस्राएल में इस प्रथा का प्रचलन हुआ
1) ईसा उन्हें फिर दृष्टान्त सुनाने लगे। उन्होंने कहा,
2) "स्वर्ग का राज्य उस राजा के सदृश है, जिसने अपने पुत्र के विवाह में भोज दिया।
3) उसने आमन्त्रित लोगों को बुला लाने के लिए अपने सेवकों को भेजा, लेकिन वे आना नहीं चाहते थे।
4) राजा ने फिर दूसरे सेवकों को यह कहते हुए भेजा, ’अतिथियों से कह दो- देखिए! मैंने अपने भोज की तैयारी कर ली है। मेरे बैल और मोटे-मोटे जानवर मारे जा चुके हैं। सब कुछ तैयार है; विवाह-भोज में पधारिये।’
5) अतिथियों ने इस की परवाह नहीं की। कोई अपने खेत की ओर चला गया, तो कोई अपना व्यापार देखने।
6) दूसरे अतिथियों ने राजा के सेवकों को पकड़ कर उनका अपमान किया और उन्हें मार डाला।
7) राजा को बहुत क्रोध आया। उसने अपनी सेना भेज कर उन हत्यारों का सर्वनाश किया और उनका नगर जला दिया।
8) "तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, ’विवाह-भोज की तैयारी तो हो चुकी है, किन्तु अतिथि इसके योग्य नहीं ठहरे।
9) इसलिए चैराहों पर जाओ और जितने भी लोग मिल जायें, सब को विवाह-भोज में बुला लाओ।’
10) सेवक सड़कों पर गये और भले-बुरे जो भी मिले, सब को बटोर कर ले आये और विवाह-मण्डप अतिथियों से भर गया।
11) "राजा अतिथियों को देखने आया, तो वहाँ उसकी दृष्टि एक ऐसे मनुष्य पर पड़ी, जो विवाहोत्सव के वस्त्र नहीं पहने था।
12) उसने उस से कहा, ’भई, विवाहोत्सव के वस्त्र पहने बिना तुम यहाँ कैसे आ गये?’ वह मनुष्य चुप रहा।
13) तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, ’इसके हाथ-पैर बाँध कर इसे बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।’
14) क्योंकि बुलाये हुए तो बहुत हैं, लेकिन चुने हुए थोडे़ हैं।"
निमंत्रण कोई आदेश नहीं है। हमें जीवन में कई निमंत्रण मिलते हैं, या तो मौखिक रूप से या लिखित रूप में और हम शायद उनमें से कईयों को अनदेखा या अस्वीकार कर देते हैं। हम निमंत्रण स्वीकार करने या न करने के लिए स्वतंत्र हैं। हमारे साथ संबंध बनाने का ईश्वर का तरीका आज्ञा के बजाय अधिकतर एक निमंत्रण का आकार लेता है। जिस दृष्टांत को येसु आज के सुसमाचार में बताते हैं, वह हम सभी के लिए जीवन के भोज के लिए ईश्वर के निमंत्रण के बारे में है। कहानी में, एक राजा है जो अपने बेटे की शादी के भोज में चुने हुए मेहमानों को आमंत्रित करता है।
जब आमंत्रित सभी मना कर देते हैं; वह भोजन रद्द नहीं करता है, इसके बजाय वह एक नए समूह को आमंत्रित करता है। कहानी का वह पहलू हमें ईश्वर की दृढ़तानिश्चियिता के बारे में बताता है। जब ईश्वर के निमंत्रण के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया नहीं आ रही है, तो ईश्वर कुछ भी रद्द नहीं करता है; वह बस अपने निमंत्रण को तेज करता है। ईश्वर यह सुनिश्चित करने के लिए कार्य करना जारी रखता है कि अधिक से अधिक लोग जीवन के भोज में पहुंचें। यह भोज एक अर्थ में मसीह के व्यक्तित्व में सन्निहित है जो जीवन की रोटी है।
दृष्टांत का दूसरा भाग हमें याद दिलाता है कि ईश्वर के निमंत्रण के लिए 'हां' कहना कुछ ऐसा नहीं है जिसे हम एक बार करते हैं और फिर भूल जाते हैं। हमें अपने जीवन के हर दिन ईश्वर के निमंत्रण के लिए 'हां' कहना है। दृष्टान्त की भाषा में हमें विवाह का वस्त्र धारण करते रहना है। बपतिस्मा के समय मसीह को पहिनने के बाद, हमें उस बपतिस्मा के वस्त्र को सदैव धारण किये रहना है। याने हमारी वह प्रारम्भिक शुद्धता और पवित्रता को बनाये रखना है।
✍फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांतAn invitation is not a command. We receive many invitations in life, either verbally or in writing and we probably ignore or decline a good number of them. We are free to accept an invitation or not. God’s way of relating to us is shaped more by invitation than by command. The parable Jesus speaks in the gospel reading this morning is about God’s invitation to all of us to the banquet of life. In the story, the king who invites chosen guests to his son’s wedding banquet does not cancel the meal when those who were invited all refuse; instead, he invites a whole new group. That aspect of the story speaks to us of God’s persistence.
When the human response to God’s invitation is not forthcoming, God does not cancel anything; he simply intensifies his invitation. God continues to work to ensure that as many as possible approach the banquet of life. This banquet is in a sense embodied in the person of Christ who is the bread of life.
The second part of the parable reminds us that saying ‘yes’ to the God’s invitation is not something we do once and then forget about. We have to say ‘yes’ to God’s invitation everyday day of our lives. In the language of the parable, we have to keep putting on the wedding garment. Having been clothed with Christ at baptism, we have to keep clothing ourselves with Christ and all he stands for, day by day.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya