वर्ष -1, अठारहवाँ सामान्य सप्ताह, बुधवार

पहला पाठ : गणना ग्रन्थ 13:1-2.25-14:1.26-29.34-35

1) प्रभु ने मूसा से कहा,

2) ''जो कनान देश में इस्राएलियों को देने जा रहा हूँ, उसकी टोह लगाने के लिए आदमियों को भेजो - हर एक वंश से एक प्रतिष्ठित व्यक्ति को।''

25) चालीस दिन बाद वे उस देश की टोह लगा कर लौटे।

26) वे पारान की मरुभूमि के कादेश नामक स्थान पर मूसा, हारून और इस्राएल के सारे समुदाय के पास आये। उन्होंने उनके और सारे समुदाय के सामने अपना विवरण प्रस्तुत किया और उन्हें उस देश के फल दिखाये।

27) उन्होंने मूसा से कहा, ''हम उस देश में गये, जहाँ आपने हमें भेजा था। वहाँ दूध और मधू की नदियाँ बहती हैं। ये रहे वहाँ के फल!

28) वहाँ के निवासी बलवान् है। उनके नगर सुरक्षित और बहुत बड़े हैं। हमने वहाँ अनाक के वंशजों को भी देखा है।

29) नेगेब प्रदेश में अमालेकी रहते है ; पहाड़ी प्रदेश में हित्ती, यबूसी और अमोरी; समुद्र के किनारे और यर्दन नदी के तट पर कनानी निवास करते हैं।

30) कालेब ने मूसा के विरुद्ध भुनभुनाने वाले लोगों को शान्त किया और कहा, ''हम वहाँ चलें और उस देश को अपने अधिकार में कर लें। हम उसे जीतने में समर्थ हैं।''

31) किन्तु जो व्यक्ति कालेब के साथ गये थे, वे बोले, ''हम उन लोगों का सामना नहीं कर सकते, क्योंकि वे हम से बलवान् हैं।

32) वे जिस देश की टोह लगा चुके थे, उसकी निन्दा करने लगे और बोले, ''हम जिस देश की टोह लगा चुके हैं, वह एक ऐसा देश है, जो अपने निवासियों को खा जाता है। हमने जिन लोगों का वहाँ देखा है, वे सब बहुत लम्बे कद के हैं।

33) हमने वहाँ भीमकाय लोगों को भी देखा। अनाकी भीमकाय लोगों के वंशज हैं। उनकी तुलना में हम अपने को टिड्डियाँ समझते थे और वे भी हमें यही समझते होंगे।''

1) सारा समुदाय ये बातें सुन कर ज़ोर से चिल्लाने लगा और रात भर विलाप करता रहा।

26) प्रभु ने मूसा और हारून से यह कहा,

27) ''मैं कब तक इस दुष्ट समुदाय की शिकायतें सहन करता रहूँ? मैं इस्राएलियों से अपनी शिकायतें सुन चुका हूँ।

28) उन्हें यह बता दो - प्रभु कहता है, “अपने अस्तित्व की शपथ! मैंने तुम लोगों को जो बातें कहते सुना है, उन्हीं के अनुसार मैं तुम्हारे साथ व्यवहार करूँगा।

29) यहाँ इस मरूभूमि में तुम्हारे शव पड़े रहेंगे, क्योंकि तुम लोगों ने मेरी शिकायत की है। जितने लोगों के नाम जनगणना के समय लिखे गये थे और जिनकी आयु बीस के ऊपर है,

34) तुम लोगों ने चालीस दिन तक उस देश का निरीक्षण किया। उनका हर दिन एक वर्ष गिना जायेगा। इसके अनुसार तुम्हें चालीस वर्ष तक अपने अपराधों का फल भुगतना पड़ेगा और तुम जान जाओगे कि मेरा विरोध करने का फल क्या होता है।

35) मैं प्रभु यह कह चुका हूँ। इस दुष्ट समुदाय ने मेरा विरोध किया है। मैं इसके साथ यही व्यवहार करूँगा। यह इस मरूभूमि में समाप्त हो जायेगा। ये लोग सब-के-सब यहाँ मर जायेंगे।''

सुसमाचार : मत्ती 15:21-28

21) ईसा ने वहाँ से बिदा होकर तीरूस और सिदोन प्रान्तों के लिए प्रस्थान किया।

22) उस प्रदेश की एक कनानी स्त्री आयी और पुकार-पुकार कर कहती रही, ’’प्रभु दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए। मेरी बेटी एक अपदूत द्वारा बुरी तरह सतायी जा रही है।’’

23) ईसा ने उसे उत्तर नहीं दिया। उनके शिष्यों ने पास आ कर उनसे यह निवेदन किया, ’’उसकी बात मानकर उसे विदा कर दीजिए, क्योंकि वह हमारे पीछे-पीछे चिल्लाती आ रही है’’।

24) ईसा ने उत्तर दिया, ’’मैं केवल इस्राएल के घराने की खोई हुई भेड़ों के पास भेजा गया हूँ।

25) इतने में उस स्त्री ने आ कर ईसा को दण्डवत् किया और कहा, ’’प्रभु! मेरी सहायता कीजिए’’।

26) ईसा ने उत्तर दिया, ’’बच्चों की रोटी ले कर पिल्लों के सामने डालना ठीक नहीं है’’।

27) उसने कहा, ’’जी हाँ, प्रभु! फिर भी स्वामी की मेज़ से गिरा हुआ चूर पिल्ले खाते ही हैं’’।

28) इस पर ईसा ने उत्तर दिया ’’नारी! तुम्हारा विश्वास महान् है। तुम्हारी इच्छा पूरी हो।’’ और उसी क्षण उसकी बेटी अच्छी हो गयी।

📚 मनन-चिंतन

आज जब हम आर्स की चंगाई कहे जाने वाले, सभी पुरोहितों के संरक्षक संत योहन मारिया वियान्नी का पर्व मनाते हैं, तो आइए हम इस छोटे से पर एक महान संत के जूनून और उत्साह को आत्मसात करें। वे कैसे सब प्रकार की नकारात्मक और निराशाजनक परिवेश में रहते हुए भी एक सकारात्मक आध्यात्मिक परिवर्तन लाते हैं ।

उनके पुरोहित अभिषेक तक की चुनितियों से तो हम सब वाकिफ ही हैं कि किस प्रकार से पढाई में कमज़ोर होते हुए भी ईश्वर की कृपा से वे प्रभु की वेदी तक पहुंच पाते हैं। उनके अभिषेक के बाद जब उनकी नियुक्ति आर्स नामक एक ऐसी पल्ली में होती है जहाँ की बदहाली की वजह से वहां कोई भी पुरोहित वहाँ जाना पसंद नहीं करता था। उनके विकार जनरल ने उन्हें वहां भेजते समय उनसे कहा था, "उस पल्ली में ईश्वर प्यार समाप्त हो चूका है; शायद आप उसे लौटा पाएं ” ये शब्द उल्लेखनीय रूप से एक नबूवत के शब्द थे पर उस समय विकार जनरल की मंशा यह नहीं थी। वह तो उस स्थान की बदहाली वाली परिस्थिति से उनको परिचित करा रहे थे।

अगर हम योहन वियान्नी को आर्स की उस पल्ली में पहली सुबह चर्च की घंटी बजाते हुए देखते हैं तो यह याद रहे कि यह एक टूटी हुई इमारत में एक टूटी हुई घंटी थी। आज इस तरह की इमारत, जल्द ही, बंद इमारतों की सूचि में आ जाएगी। कहने का मतलब वो ईमारत शायद रहने और प्रार्थना के लायक नहीं थी। पर उस साधारण लेकिन महान संत ने अपनी प्रार्थना व आध्यात्मिकता के बदोलत सब कुछ बदल के रख दिया। हम उनकी प्रार्थना में उनके साहस की एक झलक पा सकते हैं, एक प्रार्थना जिसे कई पल्ली पुरोहितों को पूरे मन से ईश्वर से पूछने में संकोच होगा: "हे, ईश्वर मेरे पल्ली का रूपांतरण और पल्लीवासियों का मनपरिवर्त कर; इसके बदले मैं जीवन भर आप जो कुछ भी चाहो भुगतने को तैयार हूं।" ईश्वर ने उस प्रार्थना का उत्तर दिया और उस पल्ली का आमूल परिवर्तन दिया और सैकड़ों हजारों ने अंततः पृथ्वी पर उस छोटे से स्थान की यात्रा की। यह एक "नए सुसमाचार प्रचार" की शुरुआत सा प्रतीत होता है।

उनके आत्मविश्वास को समझने के लिए हमें यह जानने के लिए प्रत्येक सुबह पहले उस दृश्य को देखने की आवश्यकता होगी, जहां से यह विश्वास बहता है:पवित्र संदूक के सामने घुटने टेकना, यूखारिस्त में उपस्थित जिन्दा येसु जो धन्य संस्कार में हर दिन की शुरुआत में उनसे मिलता था। आज के बिगड़ते समाज और राह भटकती आज की पीढ़ी को सही मार्ग पर लाने के लिए सिर्फ बड़े -बड़े उपदेश नहीं घुटनों पर आकर रोते हुए की जाने वाली प्रार्थना की ज़रूरत है। आज कलीसिया को हज़ारों वियान्नी की ज़रूरत है। न केवल पुरोहित पर वियान्नी जैसे माता - पिता, धर्म प्रचारक और शिक्षक - शिक्षिकाएं जो वास्तव में अपने परिवार, समाज व दुनिया में आध्यात्मिकता की एक लहर के लिए रोते और बिलखते हुए प्रार्थना करें।

फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत

📚 REFLECTION


Today as we celebrate John Maria Vianni, the patron saint of all priests, called the cure of Ars, let us imbibe the passion and enthusiasm of this small yet great saint. How he brings about a positive spiritual transformation even in all kinds of negative and depressing surroundings. We are all aware of the challenges faced up to his priestly ordination and how, despite being weak in studies, by the grace of God, he reached the altar of the Lord. After his ordination, when he is appointed to a parish called Ars, where no priest liked to go, because of the growing evil there. His Vicar General, while sending him there, told him, "There is no love of God left in that parish, perhaps you can revive it." These words were remarkably the words of a prophet, but that was not the intention of the vicar general at the time. It was to introduce him to the dilapidated and disappointing condition of the place.

If we see John Vianni ring the church bell in that parish of Ars on the first morning, remember that it was a broken bell in a broken building. Today such a building will, soon, be on the list of closed buildings. That is to say, that building was probably not worth living and useful for prayer. But that simple but great saint changed everything through his prayer and spirituality. We can see a glimpse of his courage in his prayer, a prayer that many parish priests would hesitate to ask God wholeheartedly: "O God, convert my parish and the parishioners; and for that I am ready to suffer whatever you give me." God answered that prayer and radically changed that parish, and hundreds of thousands eventually travelled to that little place on earth. This appears to be the beginning of a "new evangelism”. To understand His confidence, we need to see the from where every morning his faith, power and energy flow: He used to meet, kneeling before the Holy Tabernacle, the living Jesus present in the Eucharist at the beginning of each day in the Blessed Sacrament.

In order to bring today's deteriorating society and the fallen generation on the right path, not only big-big sermons needed but we need to come on our knees and with tears need to pray for our generation. Today the church needs thousands of Viannis. Not only priests but parents, missionaries and teachers like Vianni who actually weep and pray for a wave of spirituality in their family, society and the world.

-Fr. Preetam Vasuniya


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Praise the Lord!