4) इस्राएली भी विलाप करने लगे। उन्होंने यह कहा, ''कौन हमें खाने के लिए मांस देगा?
5) हाय! हमें याद आता है कि हम मिस्र में मुफ्त मछली खाते थे, साथ ही खीरा, तरबूज, गन्दना प्याज और लहसुन।
6) अब तो हम भूखों मर रहे हैं - हमें कुछ भी नहीं मिलता। मन्ना के सिवा हमें और कुछ दिखाई नहीं देता।''
7) मन्ना धनिया के बीज-जैसा था। उसका रूप-रंग गुग्गुल के सदृष था।
8) लोग उसे बटोरने जाते थे, चक्की में पीसते या ओखली में कूटते थे, और बरतनों में उबाल कर उसकी रोटियाँ पकाते थे। उसका स्वाद तेल में तली हुई पूरी-जैसा था
9) जब रात को ओस शिविर पर उतरती थी, तो मन्ना भी गिरता था।
10) मूसा ने लोगों को, हर परिवार को अपने-अपने तम्बू के द्वार पर विलाप करते सुना। प्रभु का क्रोध भड़क उठा। मूसा को यह बहुत बुरा लगा
11) और उसने प्रभु से यह कहा, ''तू अपने दास को इतना दुख क्यों दे रहा है? तू मुझ पर इतना अप्रसन्न क्यों है कि तूने इस प्रजा का पूरा भार मुझ पर ही डाल दिया है?
12) क्या मैंने इसे उत्पन्न किया है, जो तू मुझसे कहता है - जिस तरह दायी दूध-पीते बच्चे को सँभालती है, तुम इसे गोद में उठाकर उस देश ले जाओ, जिसे मैंने इसके पूर्वजों को देने की शपथ खाई है।
13) मैं इन सब लोगों के लिए कहाँ से माँस ले आऊँ। वे विलाप करते हुए मुझ से कहते है, “हमें खाने के लिए माँस दीजिए।”
14) मैं अकेले ही इस प्रजा को नहीं सँभाल सकता, मैं यह भार उठाने में असमर्थ हूँ।
15) यदि मेरे साथ तेरा यही व्यवहार हो, तो यह अच्छा होता कि तू मुझे मार डालता। यह संकट मुझ से दूर करने की कृपा कर।''
13) ईसा यह समाचार सुन कर वहाँ से हट गये और नाव पर चढ़ कर एक निर्जन स्थान की ओर चल दिऐ। जब लोगों को इसका पता चला, तो वे नगर-नगर से निकल कर पैदल ही उनकी खोज में चल पड़े।
14) नाव से उतर कर ईसा ने एक विशाल जनसमूह देखा। उन्हें उन लोगों पर तरस आया और उन्होंने उनके रोगियों को अच्छा किया।
15) सन्ध्या होने पर शिष्य उनके पास आ कर बोले, ’’यह स्थान निर्जन है और दिन ढल चुका है। लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे गाँवों में जा कर अपने लिए खाना खरीद लें।‘‘
16) ईसा ने उत्तर दिया, ’’उन्हें जाने की ज़रूरत नहीं। तुम लोग ही उन्हें खाना दे दो।‘‘
17) इस पर शिष्यों ने कहा ’’पाँच रोटियों और दो मछलियों के सिवा यहाँ हमारे पास कुछ नहीं है‘‘।
18) ईसा ने कहा, उन्हें यहाँ मेरे पास ले आओ’’।
19) ईसा ने लोगों को घास पर बैठा देने का आदेश दे कर, वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले ली़। उन्होंने स्वर्ग की और आँखें उठा कर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और रोटियाँ तोड़-तोड़ कर शिष्यों को दीं और शिष्यों ने लोगों को।
20) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।
21) भोजन करने वालों में स्त्रिीयों और बच्चों के अतिरिक्त लगभग पाँच हज़ार पुरुष थे।
परिवार की उस विपदा की स्थिति को हर माँ जानती है जब लोक डाउन लग जाता है और दुकानें बंद हो जाती हैं और दैनिक आवश्यक आपूर्ति रुक सी जाती है। येसु और उनके शिष्यों की इस मिशन यात्रा के लगातार तीन दिन हो गए हैं, और कुछ भी नहीं बचा होगा। परन्तु येसु लोगों की उस विशाल भीड़ के लिए खाने को कुछ नहीं है वाले संकट को एक पार्टी में बदल देते हैं। हम अपने संसाधनों पर छोड़ दें तो हम असहाय हैं, लेकिन येसु इससे निपट सकते हैं। वास्तव वहाँ लोग में कितने थे? हम नहीं जानते, क्योंकि संख्याएँ प्रतीकात्मक हैं। बाइबिल में 'बारह' हमें इज़राइल की जनजातियों की और संकेत करता है। तो टुकड़ों की बारह टोकरियाँ दिखाती हैं कि वो भीड़ यीशु के नए इस्राएल के बारह गोत्र हैं। जिस तरह से येसु रोटी लेते हैं और आशीर्वाद की प्रार्थना करते हैं। यह किसी भी ईसाई को पवित्र यूखारिस्त की याद दिलाना चाहिए। तो यह विशाल पार्टी एक प्रकार का यूखारिस्त था, भीड़ का केंद्र येसु थे जो उन्हें तृप्त कर रहे थे. निर्जन प्रदेश का यह भोज लोगों के लिए उत्साह उंमग ख़ुशी का समारोह बन गया। हर ख्रीस्तीय के लिए पवित्र यूखारिस्तभी ऐसे ही उत्साह, उंमग और आनंद का एक उत्सव होना चाहिए।
✍फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांतEvery mother knows the disaster-situation of the family, day out when the shops turn out to be closed and the emergency supplies were left at home due to lock down. It had been three days now since Jesus had begun his mission with his disciples, and there must have been nothing left at all. Jesus turns the disaster into a party for that huge crowd of people. Left to our own resources we are helpless, but Jesus can deal with that. How many were there? We don’t know, for the numbers are symbolic. In the Bible ‘twelve’ alerts us to the tribes of Israel. So, the twelve baskets of scraps show that the crowd is the twelve tribes of Jesus’ new Israel. The way Jesus takes the bread and says the blessing must remind any Christian of the Eucharist. So, this gigantic field-party was a sort of Eucharist, Jesus is at the centre of his people, entertaining them and cheering them. It probably wasn’t very orderly. There would have been children enjoying the food and then running around and tripping up themselves and others as they sat on the grass. An African Mass is often like that, with lots of singing and dancing and celebration. That is why the Sunday Mass is so important: meet your friends and celebrate Christ together!
✍ -Fr. Preetam Vasuniya