1) प्रभु ने सीनई पर्वत पर मूसा से कहा,
8) वर्षों के सात सप्ताह, अर्थात् सात बार सात वर्ष, तदनुसार उनचास वर्ष बीत जाने पर
9) तुम सातवें महीने के दसवें दिन, प्रायश्चित के दिन, देश भर में तुरही बजवाओगे।
10) यह पचासवाँ वर्ष तुम दोनों के लिए एक पुष्प-वर्ष होगा और तुम देश में यह घोषित करोगे कि सभी निवासी अपने दासों को मुक्त कर दें। यह तुम्हारे लिए जयन्ती-वर्ष होगा - प्रत्येक अपनी पैतृक सम्पत्ति फिर प्राप्त करेगा और प्रत्येक अपने कुटुम्ब में लौटेगा।
11) पचासवाँ वर्ष तुम्हारे लिए जयन्ती-वर्ष होगा। इसमें तुम न तो बीच बोओगे, न पिछली फ़सल काटोगे और न अनछँटी दाखलताओं के अंगूर तोड़ोगे,
12) क्योंकि यह जयन्ती-वर्ष हैं तुम इसे पवित्र मानोगे और खेत में अपने आप उगी हुई उपज खाओगे।
13) इस जयन्ती-वर्ष में प्रत्येक अपनी पैतृक सम्पत्ति फ़िर प्राप्त करेगा।
14) जब तुम किसी देश-भाई के हाथ कोई जमीन बेचते हो अथवा उस से ख़रीद लेते हो, तो तुम एक दूसरे के साथ बेईमानी मत करो।
15) जब तुम किसी देश-भाई से कोई ज़मीन ख़रीदते हो, तो इसका ध्यान रखो कि पिछले जयन्ती-वर्ष के बाद कितने वर्ष बीत गये हैं और बाकी फ़सलों की संख्या के अनुसार बेचने वाले को विक्रय-मूल्य निर्धारित करना चाहिए।
16) जब अधिक वर्ष बाकी हों, तो मूल्य अधिक होगा और यदि कम वर्ष बाकी हों, तो मूल्य कम होगा; क्योंकि वह तुम्हें फसलों की एक निश्चित संख्या बेचता है।
17) तुम अपने देश-भाई के साथ बेईमानी मत करो, बल्कि अपने ईश्वर पर श्रद्वा रखो; क्योंकि मैं तुम्हारा प्रभु, ईश्वर हूँ।
1) उस समय राजा हेरोद ने ईसा की चर्चा सुनी।
2) और अपने दरबारियों से कहा, ’’यह योहन बपतिस्ता है। वह जी उठा है, इसलिए वह महान् चमत्कार दिखा रहा है।’’
3) हेरोद ने अपने भाई फि़लिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ़्तार किया और बाँध कर बंदीगृह में डाल दिया था;
4) क्योंकि योहन ने उस से कहा था, ’’उसे रखना आपके लिए उचित नहीं है’’।
5) हेरोद योहन को मार डालना चाहता था; किन्तु वह जनता से डरता था, जो योहन को नबी मानती थी।
6) हेरोद के जन्मदिवस के अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अतिथियों के सामने नृत्य किया और हेरोद को मुग्ध कर दिया।
7) इसलिए उसने शपथ खा कर वचन दिया कि वह जो भी माँगेगी, उसे दे देगा।
8) उसकी माँ ने उसे पहले से सिखा दिया था। इसलिए वह बोली, ’’मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दीजिए’’।
9) हेरोद को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण उसने आदेश दिया कि उसे सिर दे दिया जाये।
10) और प्यादों को भेज कर उसने बंदीगृह में योहन का सिर कटवा दिया।
11) उसका सिर थाली में लाया गया और लड़की को दिया गया और वह उसे अपनी माँ के पास ले गयी।
12) योहन के शिष्य आ कर उसका शव ले गये। उन्होंने उसे दफ़नाया और जा कर ईसा को इसकी सूचना दी।
जब हमारे मन में बुराई घर बना लेती है तो वह और दूसरी ऐसी चीज़ों को जन्म देती है जो हमें और अधिक गहरे पापों में धकेल देती हैं, दूसरी ओर जब हम निडरता से सत्य के साथ खड़े होते हैं, तो बुराई भी हमसे डरने लगती है. इसका जीता-जागता उदाहरण हम आज के सुसमाचार में देखते हैं. सन्त योहन बप्तिस्ता सत्य का जीवन जीते थे, अपने वचनों द्वारा निडर होकर ईश्वर का साक्ष्य देते थे, अपने जीवन द्वारा अपनी शिक्षाओं को प्रमाणित भी करते थे. वहीँ दूसरी ओर राजा हेरोद जिसके मन में बुराई ने घर कर लिया था, पाप ने उसे अपने चंगुल में फँसा लिया था, वह राजा होते हुए भी एक साधारण से दिखने वाले मामूली से इन्सान से डरता था.
सत्य के निडर सिपाही योहन बपतिस्ता का डर राजा हेरोद के मन में इस कदर समाया था, कि उसको अन्याय पूर्ण तरीके से मार डालने के बावजूद उसकी याद उसके मन में बनी हुई थी, इसलिए जब वह उसी सत्य के निडर सिपाही के दर्शन प्रभु येसु में करता है तो एक बार फिर डर जाता है. उसका डर उसके इन्ही शब्दों से बाहर आता है - कहीं यह योहन तो नहीं जिसे मैंने मरवा डाला था! हम जब भी कुछ गलत करते हैं, पाप करते हैं, अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध जाते हैं तो हम चैन से नहीं जी सकते. हमारा अपराध किसी न किसी रूप में हमें परेशान करता ही रहता है. मन की शान्ति पाने का एकमात्र उपाय है, अपनी गलती मानते हुए पश्चातापी करुणामय पिता के पास अपने पाप स्वीकार कर क्षमा माँगनी है.
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)When evil makes it dwelling place within us, then it gives birth to many other things that push us deeper into sin, whereas when we boldly stand with truth, the evil cannot withstand us. We see a living example of this in the gospel today. St. John the Baptist lived a life of Truth, he boldly bore witness to God through his life, and lived what he taught. On the other hand Herod being a king, whose heart was filled with darkness and evil, who was fully under the clutches of sin, was afraid of an ordinary homeless man.
The fear of the brave soldier of Truth, St. John the Baptist, was so much in his heart that, even after killing him unjustly, was afraid even of his memory. When saw same boldness and life of Truth in Jesus, he recalled John the Baptist. His fear is expressed in his own words from his mouth – “This is John the Baptist; he has been raised from the dead.” Whenever we commit sin or do wrong or go against our conscience, our heart cannot remain at peace. The guilt of sin keeps on bothering us, making us restless. There is only one way to attain the peace of mind, and that is, to accept the sinfulness, repent and turn to God and implore forgiveness, perhaps He may forgive us and accept us. Amen.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)