वर्ष -1, पन्द्रहवाँ सामान्य सप्ताह, सोमवार

पहला पाठ :निर्गमन 1:8-14, 22

8) मिस्र देश में एक नये राजा का उदय हुआ, जो यूसुफ़ के विषय में कुछ नहीं जानता था।

9) उसने अपनी प्रजा से कहा, सुनो ये इस्राएली संख्या और शक्ति में हम से अधिक हो गये हैं।

10) हमें ऐसा उपाय सोच निकालना चाहिए, जिससे उनकी संख्या न बढ़ने पाये। कहीं ऐसा न हो कि युद्व छिड़ने पर ये हमारे शत्रुओं का साथ दें और हमारे विरुद्ध लड़ने के बाद देश से निकल भागें।

11) उन्होंने इस्राएलियों पर ऐसे अधिकारियों को नियुक्त किया, जो उन्हें बेगार में लगा कर उनका दमन करें। इस्राएलियों ने इस प्रकार फिराउन के लिए पितोम और रामसेस नामक गोदाम वाले नगर बनाये।

12) किन्तु उन पर जितना अधिक अत्याचार किया जाता था, उतना ही अधिक वे संख्या में बढ़ते और फैलते जाते थे। इस करण मिस्री उन से डरने लगे।

13) उन्होंने इस्राएलियों को बेगार में लगाया।

14) और उन से कठोर परिश्रम करा कर उनका जीवन कड़वा बना दिया। उन्होंने गारा और ईट बनाने और खेत में हर प्रकार का काम करने के लिए उन्हें बाध्य किया।

22) इसके बाद फिराउन ने अपनी समस्त प्रजा को यह आदेश दिया कि वह प्रत्येक नवजात इब्रानी लड़के को नील नदी में फेंक दे, किन्तु सब लड़कियों को जीवित रहने दे।

सुसमाचार : मत्ती 10:34-11:1

34) ’’यह न समझो कि मैं पृथ्वी पर शांति लेकर आया हूँ। मैं शान्ति नहीं, बल्कि तलवार लेकर आया हूँ।

35) मैं पुत्र और पिता में, पुत्री और माता में, बहू और सास में फूट डालने आया हूँ।

36) मनुष्य के घर वाले ही उसके शत्रु बन जायेंगे।

37) जो अपने पिता या अपनी माता को मुझ से अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नहीं है। जो अपने पुत्र या अपनी पुत्री को मुझ से अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नहीं।

38) जो अपना क्रूस उठा कर मेरा अनुसरण नहीं करता, वह मेरे योग्य नहीं।

39) जिसने अपना जीवन सुरक्षित रखा है, वह उसे खो देगा और जिसने मेरे कारण अपना जीवन खो दिया है, वह उसे सुरक्षित रख सकेगा।

40) ’’जो तुम्हारा स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है वह उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है।

41) जो नबी का इसलिए स्वागत करता है कि वह नबी है, वह नबी का पुरस्कार पायेगा और जो धर्मी का इसलिए स्वागत करता है कि वह धर्मी है, वह धर्मी का पुरस्कार पायेगा।

42) ’’जो इन छोटों में से किसी को एक प्याला ठंडा पानी भी इसलिए पिलायेगा कि वह मेरा शिष्य है, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह अपने पुरस्कार से वंचित नहीं रहेगा।

1) अपने बारह शिष्यों को ये उपदेश देने के बाद ईसा यहूदियों के नगरों में शिक्षा देने और सुसमाचार का प्रचार करने वहाँ से चल दिये।

📚 मनन-चिंतन

प्रभु येसु आज हमसे कहते हैं, ‘जिसने अपना जीवन सुरक्षित रखा है वह उसे खो देगा और जिसने मेरे कारण अपना जीवन खो दिया है, वह उसे सुरक्षित रख सकेगा.” मनुष्य के जीवन की क्या कीमत है? क्या कोई ऐसी बस्तु या धन-दौलत है जिसके बदल में हम एक इन्सान के लिए जीवन खरीद सकते हैं? जीवन के वास्तविक मूल्य की झलक हमें कुछ दिन पहले कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान दिखी. जब लोग सांसों के लिए तड़प रहे थे, जब इलाज के लिए मारे-मारे फिर रहे थे, अपने जीवन के एक-एक पल के लिए लाखों रूपये लुटाने के लिए तैयार थे, चाहे कोई उनका सब कुछ ले ले लेकिन उनकी जान बचा ले. आपने जीवन की असली कीमत का एहसास हमें इस विपत्ति ने करा दिया, जीवन अनमोल है, अमूल्य है.

अगर हमारे जीवन की कोई भी कीमत नहीं लगा जा सकती तो सोचिये यह अमूल्य जीवन ईश्वर ने हमें मुफ्त में दिया है. क्या उसने हमसे हमारी सांसों के लिए कोई कीमत ली है? क्या हम अपने जीवन के बदले ईश्वर को कुछ दे सकते हैं? क्या हम अपनी खुद की ही कीमत चुका सकते हैं? स्तोत्रकार हमें समझाता है, “मनुष्य न तो अपने भाई का उद्धार कर सकता और न उसके जीवन का मूल्य ईश्वर को दे सकता है. प्राणों का मूल्य इतना ऊँचा है कि किसी के पास पर्याप्त धन नहीं है. (स्तोत्र-ग्रन्थ 49:8-9). क्या हमारा यह फ़र्ज़ नहीं बनता कि हम मुफ्त में मिले अपने इस अमूल्य जीवन के कुछ पल ईश्वर को दे दें. उसके साथ प्रार्थना में बिताएं, या उसके वचन को, उसके प्रेम को दूसरों तक ले जाने में बिताएं? अगर हम इस जीवन में ईश्वर से अन्जान बने रहेंगे तो ज़रूर प्रभु येसु भी अपने पिता के समक्ष हमें नकार देंगे, और हमारे लिए उससे बुरा कुछ नहीं हो सकता.

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)

📚 REFLECTION


Today Jesus tells us, “Those who find their life, ill loose it, and those who loose their life for my sake will find it (Matthew 10:39). What is the price of human life? Is there any money or wealth that we can pay for buying life? We could see a glimpse of the real price of one’s life during the second wave of the ongoing pandemic. When people were gasping for breath, when we were running from one place to another for treatment, we were ready to pay lakhs of rupees for each moment of our life, we were ready to pay any price for saving our life. This situation has made us to realise the real worth of one’s life, it is priceless, no price is sufficient to buy life.

If this life is priceless, imagine how generous God must be to give us such a precious gift freely. Has He charged us any price for our breaths? Can we pay God something in return of our life? The psalmist says, “Truly no ransom avails for one’s life, there is no price one can give to God for it. For the ransom of life is costly, and can never suffice (Psalm 49:7-8). Don’t we feel obliged to give few moments from this freely received gift to God? Can we not spend few moments with Him in prayer, or in spreading His love to others? If we ignore God in this life then certainly Jesus also will ignore us before His Father in heaven, and there can nothing worse hen being disowned by the creator himself.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!