वर्ष -1, चौदहवाँ सप्ताह, बुधवार

पहला पाठ : उत्पत्ति 41:55-57; 42:5-7a, 17-24a

55) समस्त मिस्र देश में अकाल पड़ने लगा और लोग फिराउन से रोटी माँगने आये। फिराउन ने सभी मिस्रियों से कहा, ''यूसुफ के पास जाओ और वह जो कहें, वही करो''।

56) हर प्रदेश में अकाल था और यूसुफ़ ने सभी गोदामों को खुलवा कर मिस्रियों को अनाज बेच दिया। मिस्र देश में अकाल बढ़ता जा रहा था।

57) सभी देशों के लोग यूसुफ़ से अनाज ख़रीदने आये, क्योंकि पृथ्वी पर घोर अकाल पड़ने लगा था।

6) उस समय यूसुफ़ समस्त मिस्र का शासन करता था और सभी निवासियों को अनाज बेचता था। यूसुफ़ के भाई उसके पास आये और उन्होंने उसे दण्डवत् किया।

7) यूसुफ़ ने उन्हें देखते ही पहचान लिया, किन्तु उसने उनसे अपरिचित होने का स्वाँग भर कर कठोर स्वर में पूछा, ''तुम लोग कहाँ से आये हो?'' उन्होंने उत्तर दिया, ''कनान देश से; अनाज खरीदने के लिए''।

17) यूसुफ़ ने उन्हें तीन दिन तक कैद में डाल दिया।

18) तीसरे दिन उसने उन से कहा, ''यदि तुम जीवित रहना चाहते हो, तो मैं तुम से जो कहने जा रहा हूँ, वही करो; क्योंकि मैं ईश्वर पर श्रद्धा रखता हूँ।

19) यदि तुम सच्चे हो, तो तुम में से एक भाई यहाँ कैद में रहेगा। दूसरे अपने भूखे परिवारों के लिए अनाज ले कर जा सकते हैं,

20) लेकिन तुम्हें अपने कनिष्ठ भाई को मेरे पास ले आना होगा। तभी तुम्हारी बात सच निकलेगी और तुम लोग जीवित रहोगे।'' उन्होंने ऐसा ही किया और

21) एक दूसरे से कहा, ''हमने अपने भाई के साथ जो अन्याय किया, उसका दण्ड हम भोग रहे है। उसने हम से दया की याचना की और हमने उसकी दुर्गति देख कर भी उसे ठुकराया। इसी से हम यह विपत्ति भोग रहे हैं।''

22) रूबेन ने उन से कहा, ''मैने तुम लोगों को कितना समझाया कि बच्चे के साथ अन्याय मत करो; किन्तु तुमने मेरी एक भी नहीं मानी और अब हमसे उसके खून का बदला लिया जा रहा है''।

23) उन्होंने एक दुभाषिये का उपयोग किया था, इसलिए उन्हें मालूम नहीं था कि यूसुफ़ उनकी बातें समझ रहा है।

24) यूसुफ़ उन से अलग हो गया और रोने लगा।

सुसमाचार : मत्ती 10:1-7

1) ईसा ने अपने बारह शिष्यों को अपने पास बुला कर उन्हें अशुद्ध आत्माओं को निकालने तथा हर तरह की बीमारी और दुर्बलता दूर करने का अधिकार प्रदान किया।

2) बारह प्रेरितों के नाम इस प्रकार हैं- पहला, सिमोन, जो पेत्रुस कहलाता है, और उसका भाई अन्द्रेयस; जेबेदी का पुत्र याकूब और उसका भाई योहन;

3) फिलिप और बरथोलोमी; थोमस और नाकेदार मत्ती; अलफ़ाई का पुत्र याकुब और थद्देयुस;

4) सिमोन कनानी और यूदस इसकारियोती, जिसने ईसा को पकड़वाया।

5) ईसा ने इन बारहों को यह अनुदेश दे कर भेजा, ’’अन्य राष्ट्रों के यहाँ मत जाओ और समारियों के नगरों में प्रवेश मत करो,

6) बल्कि इस्राएल के घराने की खोयी हुई भेड़ों के यहाँ जाओ।

7) राह चलते यह उपदेश दिया करो- स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।

📚 मनन-चिंतन

प्रभु येसु द्वारा 12 शिष्यों को चुना जाना हमारे जीवन के लिए एक बड़ा सन्देश देता है. आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु येसु 12 शिष्यों को बुलाते हैं, और उन्हें अधिकार तथा सामर्थ्य प्रदान करते हैं, ताकि वे ईश्वरीय राज्य के लिए कार्य करें. उन्होंने किसी को बाध्य नहीं किया था, प्रभु येसु के बुलावे को स्वीकार करना या ठुकराना उनके ऊपर था. लेकिन वे जानते थे कि उनके जीवन का सबसे बड़ा लाभ उस बुलावे को स्वीकार करने में है या ठुकराने में है. शायद वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे, ‘मनुष्य को इससे क्या लाभ यदि वह सारा संसार तो प्राप्त कर ले लेकिन अपना जीवन ही गँवा दे?’ (मारकुस 8:36). जब हम इन बारहों शिष्यों के नाम देखते हैं तो सवाल उठता है कि आखिर इनमें ऐसा क्या था जो प्रभु येसु ने उन्हें चुना? ईश्वर द्वारा चुने जाने की शर्त हम प्रेरित-चरित 1:21 में देखते हैं, जिसमें शिष्य मथियस को चुनते हैं, यानि कि सदा से प्रभु के साथ था.

जो सदा ईश्वर से अपने सम्बन्ध को बनाये रखता है, ईश्वर उसे बड़े-बड़े कार्यों के लिए चुनता है. हम पुराने व्यवस्थान में देखते हैं, प्रभु ने इब्राहीम को चुना, याकूब को चुना, युसूफ को चुना, मूसा को चुना, योशुआ को चुना, उनके बाद बहुत से न्यायकर्ताओं को चुना, राजाओं को चुना. उन सब की खासियत यही थी कि वे बहुत मामूली व्यक्ति थे, लेकिन वे हमेशा ईश्वर की बात सुनते और मानते थे. प्रभु येसु के 12 शिष्य भी कोई खास व्यक्ति या समाज में बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं थे, लेकिन प्रभु येसु उन्हें बहुत महत्वपूर्ण बना देते हैं; इतने महत्वपूर्ण कि स्वर्ग की कुंजियाँ उनके पास दे देते हैं (मत्ती 16:19). हम भी अपने जीवन में बहुत साधारण व्यक्ति होंगे, लेकिन ईश्वर के राज्य के लिए, हम ईश्वर की नज़रों में अति मूल्यवान हैं. बस हमें ईश्वर के प्रति अपना ह्रदय खुला रखना है, हो सकता है ईश्वर को अपने मिशन कार्य के लिए हमारी ज़रूरत हो.

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)

📚 REFLECTION


The calling of twelve disciples is very much related with our lives as well. We see Jesus calling the twelve disciples in the gospel today, and giving them power and authority to work for the kingdom of God. He did not oblige anyone but called them freely. They had a free choice to accept or reject the invitation of Jesus. But perhaps they knew where lies the greatest profit, in accepting the call or rejecting it. They were well aware of the fact that ‘...what will it profit them to gain the whole world and forfeit their life?” (Mark 6:36). When we come across the names of these chosen disciples, we may ask, what was special in them? Why did Jesus choose them? The criteria to choose, can be seen in Acts 1:21, and that criteria is that they were always with Jesus.

One who keeps up his relationship with God, God will surely choose him for great works. We can see this all through the Old Testament. God chose Abraham, Jacob, Joseph, Moses, Joshua, later on Judges and kings etc. They all had a common speciality and that was that they always kept their hearts open to the Lord and obeyed Him. The twelve disciples of Jesus were not very prominent figures socially or financially or religiously, they were very insignificant persons, but Jesus makes them significant, so much significant that they were to hold the keys to the kingdom of God (cf Matt 16:19). We may be very insignificant persons in our lives, but for the kingdom of God we are precious in the eyes of God. Only condition is that we keep our hearts open to the Lord and obey His commandments. May be God needs us for His mission. Amen.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!