23) याकूब उसी रात को उठा और अपनी दो पत्नियों, दो दासियों और ग्यारह पुत्रों के साथ यब्बोक नामक नदी के उस पार गया।
24) वह उन्हें और अपनी सारी सम्पत्ति नदी के उस पार ले गया और
25) इस पार अकेला ही रह गया। एक पुरुष भोर तक उसके साथ कुश्ती लड़ता रहा।
26) जब उसने देखा कि वह याकूब को पछाड़ नहीं सका, तो उसने उसकी जाँघ की नस पर प्रहार किया और लड़ते-लड़ते याकूब की जाँघ का जोड़ उखड़ गया।
27) उसने कहा, ''मुझे जाने दो, क्योंकि भोर हो गया है''। याकूब ने उत्तर दिया, ''जब तक तुम मुझे आशीर्वाद नहीं दोगे, तब तक मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा''।
28) उसने पूछा, ''तुम्हारा नाम क्या है?'' उसने उत्तर दिया, ''मेरा नाम याकूब है''।
29) इस पर उसने कहा, ''अब से तुम याकूब नहीं, बल्कि इस्राएल कहलाओगे; क्योंकि तुम ईश्वर और मनुष्यों के साथ लड़ कर विजयी हो गये हो''
30) तब याकूब ने पूछा, ''मुझे अपना नाम बता दो''। उसने उत्तर दिया ''तुम मेरा नाम क्यों जानना चाहते हो?''
31) और उसने वहाँ याकूब को आशीर्वाद दिया। याकूब ने उस स्थान को नाम 'पनुएल' रखा, क्योंकि उसने यह कहा, ''ईश्वर को आमने-सामने देखने पर भी मैं जीवित रह गया''।
32) जब उसने पनुएल पार किया, तो सूर्य उग रहा था। उस समय से जाँघ का जोड़ उखड़ जाने के कारण वह लँगड़ाता रहा।
33) इस कारण इस्राएली आज तक जाँघ की नस नहीं खाते, क्योंकि उस मनुष्य ने याकूब की उस नस पर प्रहार किया था।
32) वे बाहर निकल ही रहे थे कि कुछ लोग एक गॅूगे अपदूत ग्रस्त मनुष्य को ईसा के पास ले आये।
33) ईसा ने अपदूत को निकला और वह गूँगा बोलने लगा। लोग अचम्भे में पड़ कर बोल उठे, ’’इस्राएल में ऐसा चमत्कार कभी नहीं देखा गया है’’।
34) परन्तु फ़रीसी कहते थे, ’’यह नरकदूतों के नायक की सहायता से अपदूतों को निकलता है’’।
35) ईसा सभागृहों में शिक्षा देते, राज्य के सुसमाचार का प्रचार करते, हर तरह की बीमारी और दुबर्लता दूर करते हुए, सब नगरों और गाँवों में घूमते थे।
36) लोगों को देखकर ईसा को उन पर तरस आया, क्योंकि वे बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थके माँदे पड़े हुए थे।
37) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ’’फसल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं।
38) इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।’’
आज का सुसमाचार हमें याद दिलाता है कि हम आज की इस दुनिया में ख्रीस्तीय होते हुए निष्क्रिय नहीं बैठे रह सकते. ईश्वर के राज्य के लिए हमें अपनी भूमिका निभानी है, साथ ही हमारा ऐसे लोगों से सामना भी होगा, जो हमारे भलाई करने के बावजूद हमारे पुण्य कार्य में कुछ न कुछ बुराई ढूंढ ही लेते हैं. आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु येसु लोगों को चंगा करते हैं, लोगों के दुःख-दर्द दूर करते हैं और ईश्वरीय राज्य का सन्देश सुनाते हैं. वे गॉंव-गॉंव और नगर-नगर घूम-घूम कर ईश्वर के राज्य का प्रचार करते हैं और चमत्कार करते हैं. जहाँ भी प्रभु येसु जाते हैं, वहीँ उनका सन्देश सुनने के लिए लोग तरसते हुए मिलते हैं. हर जगह ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनको प्रभु येसु की ज़रूरत है. वे उन्हें बिना चरवाहे की भेड़ों के समान प्रतीत होते हैं, और इसलिए वह हम में से प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वरीय कार्य के लिए आगे आने का आह्वान करते हैं.
प्रभु येसु कहते हैं, ‘फसल तो बहुत है, लेकिन मजदूर थोड़े हैं, इसलिए फसल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फसल काटने के लिए मजदूर भेजे.’ (9:37-38). अगर हम प्रभु येसु की नज़रों से देखें तो आज भी हमें वही नज़ारा दिखेगा, बल्कि उससे भी दयनीय नज़ारा. हमारे आस-पास ऐसा कौन सा व्यक्ति है, जो सौ प्रतिशत खुश है, जिसे कोई दुःख-दर्द नहीं है, जो अपने पापों के कारण ईश्वर के दण्ड का भागी नहीं है? ऐसा कौन सा व्यक्ति नहीं जिसे ईश्वर की, उसके प्रेम की ज़रूरत नहीं? आज हमारे आस-पास ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो ना केवल बिना चरवाहे की भेड़ों के समान हैं, बल्कि भटकी हुई भेड़ों के समान हैं. उन्हें इन्तजार है मेरा, आपका, हर ख्रीस्तीय का कि वह उन्हें सुसमाचार सुनायेगा, ईश्वर का प्रेम उन तक पहुँचायेगा. हम ईश्वर के दिये हुए अपने इस जीवन पर नज़र डालें और खुद से पूछें कि मैंने ईश्वर के लिए क्या योगदान दिया है? आमेन.
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)Today’s gospel passage reminds us that being a Christian, we cannot remain inactive in today’s world. We have to do our lot for the coming of God’s kingdom. We must not forget at the same time that there will be always people who will misunderstand our good works, criticise us and find fault in all good works. We see a busy Jesus in the gospel today. He heals people, casts away evil spirits and preaches about the kingdom of God. He restlessly moves from one place to another, seeking the lost sheep and give them new life. Wherever he goes, he finds people anxiously waiting to listen to his words of life. Everywhere people are found who were in need of God’s love and compassion. They seem like sheep without shepherd, and Jesus calls each one of us to come forward to help him in his mission.
Jesus says, “The harvest is plentiful, but the labourers are few; therefore ask the Lord of harvest to send out labourers into his harvest.” (Matt. 9:37-38). If we see today’s world through the eyes of Jesus, we will see the same situation, even more pitiful. Who is around us who is completely happy, who has nothing to grieve, who does not deserve God’s wrath due to his sins? Who is there around us who does not need God and His compassionate love? Today there are innumerable people around us who are not only like sheep without shepherd but also sheep who are lost. They wait for me, for you, for every Christian that we would take gospel to them, we would take God’s love to them. Let us evaluate our life which is a free gift of God ask within, what have I done for God, for his kingdom? Amen.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)