5) जब उसका पुत्र इसहाक पैदा हुआ था, तब इब्राहीम की उमर सौ वर्ष की थी।
8) इसहाक की दूध-छुड़ाई के दिन इब्राहीम ने एक बड़ी दावत दी।
9) सारा ने मिस्री हागार के पुत्र को अपने पुत्र इसहाक के साथ खेलते हुए देखा
10) और इब्राहीम से कहा, ''इस दासी और इसके पुत्र को घर से निकाल दीजिए। इस दासी का पुत्र मेरे पुत्र इसहाक के साथ विरासत का अधिकारी नहीं होगा।''
11) अपने पुत्र के बारे में यह बात इब्राहीम को बहुत बुरी लगी,
12) किन्तु ईश्वर ने उस से कहा, ''बच्चे और अपनी दासी की चिन्ता मत करो। सारा की बात मानो, क्योंकि इसहाक के वंशजों द्वारा तुम्हारा नाम बना रहेगा।
13) मैं दासी के पुत्र के द्वारा भी एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा, क्योंकि वह भी तुम्हारा पुत्र है।''
14) इब्राहीम ने सबेरे उठ कर हागार को रोटी और पानी-भरी मशक दी और बच्चे को उसके कन्धे पर रख कर उसे निकाल दिया। हागार चली गयी और बएर-शेबा के उजाड़ प्रदेश में भटकती रही।
15) जब मशक का पानी समाप्त हो गया, तो उसने बच्चे को एक झाड़ी के नीचे रख दिया
16) और वह जा कर तीर के टप्पे की दूरी पर बैठ गयी, क्योंकि उसने अपने मन में कहा, ''मैं बच्चे का मरना नहीं देख सकती।'' इसलिए वह वहाँ बैठी हुई फूट-फूट कर रोने लगी।
17) ईश्वर ने बच्चे का रोना सुना और ईश्वर के दूत ने आकाश से हागार की सम्बोधित कर कहा, ''हागार! क्या बात है? मत डरो। ईश्वर ने बच्चे का रोना सुना, जहाँ तुमने उसे रखा है।
18) उठ खड़ी हो और बच्चे को उठाओ और सँभाल कर रखो, क्योंकि मैं उसके द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा''
19) तब ईश्वर ने हागार की आँखें खोल दीं और उसे एक कुआँ दिखाई पड़ा। उसने मशक भरी और बच्चे को पिलाया।
20) ईश्वर बच्चे का साथ देता रहा। वह बढ़ता गया और उजाड़ प्रदेश में रह कर धनुर्धर बना।
28) जब ईसा समुद्र के उस पार गदरेनियों के प्रदेश पहुँचे, तो दो अपदूत ग्रस्त मनुष्य मक़बरों से निकल कर उनके पास आये। वे इतने उग्र थे कि उस रास्ते से कोई भी आ-जा नहीं सकता था।
29) वे चिल्ला उठे, "ईश्वर के पुत्र! हम से आपको क्या ? क्या आप यहाँ समय से पहले हमें सताने आये हैं?"
30) वहाँ कुछ दूरी पर सुअरों का एक वड़ा झुण्ड चर रहा था।
31) अपदूत यह कहते हुए अनुनय-विनय करते रहे, "यदि आप हम को निकाल ही रहे हैं, तो हमें सूअरों के झुण्ड में भेज दीजिए"।
32) ईसा ने उन से कहा, "जाओ"। तब अपदूत उन मनुष्यों से निकल कर सूअरों में जा घुसे और सारा झुण्ड तेज़ी से ढाल पर से समुद्र में कूद पड़ा और पानी में डूब कर मर गया।
33) सूअर चराने वाले भाग गये और जा कर पूरा समाचार और अपदूत ग्रस्तों के साथ जो कुछ हुआ, यह सब उन्होंने नगर में सुनाया।
34) इस पर सारा नगर ईसा से मिलने निकला और उन्हें देखकर लोगों ने निवेदन किया कि वह उनके प्रदेश से चले जायें।
पहले पाठ में, हमने सुना कि हागार और उसके बच्चे को केवल कुछ पानी-भरी मशक के साथ उजाड़ प्रदेश में भेज दिया गया। जब मशक का पानी समाप्त हो गया, तो हागार ने बच्चे को एक झाड़ी के नीचे रख दिया और वह कुछ दूरी पर चली गयी क्योंकि वह बच्चे को जब शोकित और रो रहा था बच्चे का मरना नहीं देख सकती थी।
लेकिन ईश्वर ने बच्चे की चींख को सुना और ईश्वर के दूत ने हागार और बच्चे को मृत्यु से बचाया। वाकई, ईश्वर लोगों की चींख सुनता है, विशेष करके बच्चे और उन्हें बचाने के लिए आते हैं।
सुसमाचार में, दो अपदूतग्रस्त उग्र होकर ईसा पर चिल्ला रहे थे पर उनका चिल्लाना, निवेदन में परिवर्तित हो जाता है, जब ईसा से कहते हैं कि वे उन्हें सूअरों के झूण्ड में भेज दें। जब वे चिल्ला रहे थे, तक ईसा ने दो अपदूतों को सुना और चंगाई तथा स्वतंत्रता प्रदान की। प्रभु येसु ने उन्हें चंगा करके स्वंतत्र किया। ईश्वर हागार के शोक सतिृप्त चींख को सुनते और दो अपदूत ग्रस्त लोगों को भी। ईश्वर वर दें कि हम भी जरूरतमंदों की चींख को सुन सकें।
✍फादर आइजक एक्काIn the first reading, we heard of Hagar being sent away with her son into wilderness with just some bread and a skin of water. When the skin of water was finished, Hagar abandoned the child under a bush and she went off at a distance because she couldn’t bear to see the child die, while the wailed and wept. But God heard the cries of the child and sent an angel to rescue mother and child from death. Indeed, God hears the cries of His people, especially children, and will come to their rescue.
In the gospel the two demoniacs were shouting angrily at Jesus, but their shouts turned to pleading as they asked Jesus to send them into the herd of pigs. Over and above the shouting, Jesus heard the cries of the two possessed persons for healing and freedom. And He healed them and set them free. God heard the cries of Hagar’s child and two demoniacs. May we also have ears to hear the cries of those in need.
✍ -Fr. Isaac Ekka