16) वे लोग वहाँ से सोदोम की ओर चल पड़े। इब्राहीम उन्हें विदा करने के लिए उनके साथ हो लिया।
17) प्रभु ने अपने मन में यह कहा, ''मैं जो करने जा रहा हूँ, क्या उसे इब्राहीम से छिपाये रखूँ?
18) उस से एक महान् तथा शक्तिशाली राष्ट्र उत्पन्न होगा और उसके द्वारा पृथ्वी पर के सभी राष्ट्रों को आशीर्वाद प्राप्त होगा।
19) मैंने उसे चुन लिया, जिससे वह अपने पुत्र और अपने वंश को यह शिक्षा दे कि वे न्याय और धर्म का पालन करते हुए प्रभु के मार्ग पर चलते रहें। इस प्रकार मैं उस से जो प्रतिज्ञा कर चुका, उसे पूरा करूँगा।''
20) इसलिए प्रभु ने कहा, ''सोदोम और गोमोरा के विरुद्ध बहुत ऊँची आवाज़ उठ रही है और उनका पाप बहुत भारी हो गया है।
21) मैं उतर कर देखना और जानना चाहता हूँ कि मेरे पास जैसी आवाज़ पहुँची है, उन्होंने वैसा किया अथवा नहीं।''
22) वे दो पुरुष वहाँ से विदा हो कर सोदोम की ओर चले गये। प्रभु इब्राहीम के साथ रह गया और
23) इब्राहीम ने उसके निकट आ कर कहा, ''क्या तू सचमुच पापियों के साथ-साथ धर्मियों को भी नष्ट करेगा?
24) नगर में शायद पचास धर्मी हैं। क्या तू उन पचास धर्मियों के कारण, जो नगर में बसते हैं, उसे नहीं बचायेगा?
25) क्या तू पापी के साथ-साथ धर्मी को मार सकता है? क्या तू धर्मी और पापी, दोनों के साथ एक-सा व्यवहार कर सकता है? क्या समस्त पृथ्वी का न्यायकर्ता अन्याय कर सकता है?''
26) प्रभु ने उत्तर दिया, ''यदि मुझे नगर में पचास धर्मी भी मिलें, तो मैं उनके लिए पूरा नगर बचाये रखूँगा''।
27) इस पर इब्राहीम ने कहा, ''मैं तो मिट्ठी और राख हूँ; फिर भी क्या मैं अपने प्रभु से कुछ कह सकता हूँ?
28) हो सकता है कि पचास में पाँच कम हों। क्या तू पाँच की कमी के कारण नगर नष्ट करेगा?'' उसने उत्तर दिया, ''यदि मुझे नगर में पैंतालीस धर्मी भी मिलें, तो मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।
29) इब्राहीम ने फिर उस से कहा, ''हो सकता है कि वहाँ केवल चालीस मिलें''। प्रभु ने उत्तर दिया, ''चालीस के लिए मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।
30) तब इब्राहीम ने कहा, ''मेरा प्रभु क्रोध न करें और मुझे बोलने दें। हो सकता है कि वहाँ केवल तीस मिलें।'' उसने उत्तर दिया, ''यदि मुझे वहाँ तीस भी मिलें, तो मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।
31) इब्राहीम ने कहा, ''तू मेरी धृष्टता क्षमा कर - हो सकता है कि केवल बीस मिले'' और उसने उत्तर दिया, ''बीस के लिए मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।
32) इब्राहिम ने कहा, ''मेरा प्रभु बुरा न माने तो में एक बार और निवेदन करूँगा - हो सकता है कि केवल दस मिलें'' और उसने उत्तर दिया, ''दस के लिए भी में उसे नष्ट नहीं करूँगा।
18) अपने को भीड़ से घिरा देख कर ईसा ने समुद्र के उस पार चलने का आदेश दिया।
19) उसी समय एक शास्त्री आ कर ईसा से बोला, "गुरुवर! आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, मैं आपके पीछे-पीछे चलूँगा"।
20) ईसा ने उस से कहा, "लोमडियों की अपनी माँदें हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोसलें, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी अपनी जगह नहीं है"।
21) शिष्यों में किसी ने उन से कहा, "प्रभु! मुझे पहले अपने पिता को दफनाने के लिए जाने दीजिए"।
22) परन्तु ईसा ने उस से कहा, "मेरे पीछे चले आओ; मुरदों को अपने मुरदे दफनाने दो’।
आज का पहला पाठ ईश्वर के मनन चितन से प्रारंभ होता है, और ईश्वर कहता है कि क्या इसे इब्राहीम से साझा किया जाये कि उनकी योजना जो सोदोम और गोमोरा का विनाश करना था। इससे पता चलता है कि इब्राहीम को ईश्वर की योजना जानना चाहिए था जिसे वह लोगों को बुध्दिमता के साथ शिक्षा दे सकें। इब्राहीम ईश्वर से विनाशकारी विचार को बदलने का आग्रह करते हैं कि यदि वहाँ निश्चित संख्या के निर्दोष लोग मिल जायें। ईश्वर की तरह, इब्राहीम दयावान हदय वाले व्यक्ति बन जाते हैं और लोगों का अनावश्यक दुःख भोगते नहीं देखना चाहते हैं। ईश्वर हमें दयावान बनने के लिए बुलाया है। इब्राहीम की तरह हमें भी उन लोगों के लिए प्रार्थना करना चाहिए जो दुःख भोगते दिखते हैं।
आज के सुसमाचार में प्रभु येसु शिष्य बनने के शर्तों के बारे में बताते हैं। वे एक क्रांतिकारी शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि उनके शिष्य बनने के लिए सब-कुछ को त्यागना पडे़गा, यहाँ तक अपने जीवन से भी बैर करना पडे़गा। उनके शिष्य बनने के लिए चौबीसों घण्टा उनका कार्य करना पडे़गा। ईसा ने शास्त्री से कहा, ’’ लोमड़ियों की अपनी माँदे हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोसलें, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी जगह नहीं है’’ (मत्ती 8ः20)। प्रभु येसु कोई सुरक्षा या आराम के लिए जगह नहीं देते। प्रभु येसु लोगों को हतोसाहित करते हैं जो संसारिकधन पर विश्वास करते हैं। ऐसा नहीं था, कि प्रभु येसु लोगों को नहीं चाहते, अपितु वे उनके हदय को साफ देखना चाहते थे, जिस पर किसी प्रकार का हाँ या ना की स्थिति हो।
✍फादर आइजक एक्काToday’s first reading begins with God contemplating whether to share with Abraham his plan to destroy Sodom and Gomorrah. It is learnt that Abraham should know God’s ways so that he might instruct his people wisely. Abraham plainly asks God to reconsider destruction if there could be found a significant number of honest people. Like God, Abraham has a compassionate heart that does not want to see people suffer unnecessarily. God has called us to be compassionate. Like Abraham we should pray for those who seem destined to suffer.
Today’s gospel tells us about the conditions of a discipleship. Jesus teaches a radical lesson. He says his disciple has to renounce everything; even he has to hate his very self. His follower has to work twenty fours. Jesus said to the scribe, “Foxes have holes, and birds of the air have nests; but the son of man has nowhere to lay his head.” Jesus does not give any place for security and comfort. Jesus discourages those people who trust in their material wealth. It is not that Jesus does not like people, but rather he wants their motive and intention to be clear, there shouldn’t be any situation of yes and no.
✍ -Fr. Isaac Ekka