18) जब बहुत से लोग उन बातों की डींग मारते हैं, जो संसार की दृष्टि में महत्व रखती है, तो मैं भी वही करूँगा।
21) मैं संकोच के साथ स्वीकार करता हूँ कि आप लोगों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने का मुझे साहस नहीं हुआ। आप इसे मेरी नादानी समझें, किन्तु जिन बातों के विषय में वे लोग डींग मारने का साहस करते हैं, मैं भी उन बातों के विषय में वही कर सकता हूँ।
22) वे इब्रानी हैं? मैं भी हूँ! वे इस्राएली हैं? मैं भी हूँ! वे इब्राहीम की सन्तान हैं? मैं भी हूँ!
23) मैं नादानी की झोंक में कहता हूँ कि मैं इस में उन से बढ़ कर हूँ। मैंने उन से अधिक परिश्रम किया, अधिक समय बन्दीगृह में बिताया और अधिक बार कोड़े खाये। मैं बारम्बार प्राण संकट में पड़ा।
24) यहूदियों ने मुझ पाँच बार एक कम चालीस कोड़े लगाये।
25) मैं तीन बार बेंतों से पीटा और एक बार पत्थरों से मारा गया। तीन बार ऐसा हुआ कि जिस नाव पर मैं यात्रा कर कर रहा था, वह टूट गयी और एक बार वह पूरे चैबीस घण्टे खुले समुद्र पर इधर-उधर बहती रही।
26) मैं बारम्बार यात्रा करता रहा। मुझे नदियों के खतरे का सामना करना पड़ा, डाकुओं के खतरे, समुद्र के खतरे और कपटी भाइयो के खतरे का।
27) मैंने कठोर परिश्रम किया और बहुत-सी रातें जागते हुए बितायीं। मुझे अक्सर भोजन नहीं मिला। भूख-प्यास, ठण्ड और कपड़ों के अभाव-यह सब मैं सहता रहा
28) और इन बातों के अतिरिक्त सब कलीसियाओं के विषय में मेरी चिन्ता हर समय बनी रहती है।
29) जब कोई दुर्बल है, तो क्या मैं उसकी दुर्बलता से प्रभावित नहीं? जब किसी का पतन होता है, तो क्या मैं इसका तीखा अनुभव नहीं करता?
30) यदि किसी बात पर गर्व करना है, तो मैं अपनी दुर्बलताओं पर गर्व करूँगा।
19) पृथ्वी पर अपने लिए पूँजी जमा नहीं करो, जहाँ मोरचा लगता है, कीडे़ खाते हैं और चोर सेंध लगा कर चुराते हैं।
20) स्वर्ग में अपने लिए पूँजी जमा करो, जहाँ न तो मोरचा लगता है, न कीड़े खाते हैं और न चोर सेंध लगा कर चुराते हैं।
21) क्योंकि जहाँ तुम्हारी पूँजी है, वही तुम्हारा हृदय भी होगा।
22) आँख शरीर का दीपक है। यदि तुम्हारी आँख अच्छी है, तो तुम्हारा सारा शरीर प्रकाशमान होगा;
23) किन्तु यदि तुम्हारी आँख बीमार है, तो तुम्हारा सारा शरीर अंधकारमय होगा। इसलिए जो ज्योति तुम में है, यदि वही अंधकार है, तो यह कितना घोर अंधकार होगा!
आज के सुसमाचार में प्रभु येसु दो बातों पर हमारा ध्यान आर्कषित करते हैं - सच्चा धन और शरीर की ज्योति। आज हम अत्यधिक भौतिकवाद में जीवन-यापन कर रहे हैं, जहाँ ज्यादातर लोग धन पर विश्वास करते हैं, कि धन ही सभी समस्याओं का समाधान है। और ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे पैसे से खरीदा नहीं जा सकता, और ऐसा कोई भी समस्या नहीं है जिसे पैसे द्वारा हासिल न किया जा सके। इस प्रकार का विश्वास आज भी व्याप्त है यद्यपि यह कई बार गलत भी साबित हुआ है।
आज के सुसमाचार में प्रभु हमें से प्रेरित करते हुए कहते हैं अपना विश्वास और अपनी सुरक्षा ऐसी चीजों पर डालें जो कम अनश्वर हो और अधिक बना रहने वाला हो। वे कहते हैं, ’’स्वर्ग में अपने लिए पूँजी जमा करो, जहाँ न तो मोरचा लगता है, न कीडे़ खाते है और न चोर सेंध लगाकर चुराते हैं (मत्ती 6:20)। स्वर्ग में धन जमा करने का तात्पार्य यह है कि हम भले कार्य द्वारा धन कमायें जो हमारे भावी जीवन के लिए सार्थक होगा। और प्रभु येसु बड़ी चतुराई से कहते हैं, ’’जहाँ तुम्हारा धन है, वहीं तुम्हारा हदय भी होगा।’’ (मŸाी 5:21)। वास्तव हमें अपने आप से प्रश्न पूछना है, कहाँ मेरी पूंजी है? क्या मैं इसे अपनी जीवन में मूल्य देता हूँ? और कैसे मैं इसके अनुसार जीवन जीता हूँं।
सुसमाचार के दूसरे भाग में प्रभु येसु कहते हैं ’’आँख शरीर का दीपक है’’ (मत्ती 6:22) कहने का तात्पर्य यह है कि जो मैं अपने आंतरिक आँख से देखता हूँ वही मेरे जीवन का सब कुछ निर्धारित करता है।’’ यदि तुम्हारी आँख अच्छी है तो तुम्हारा सारा शरीर प्रकाशमान होगा, किन्तु यदि तुम्हारी आँख बीमार है, तो तुम्हारा सारा, शरीर अन्धकारमय होगा।’’ (मत्ती 6:23)
✍फादर आइजक एक्काIn today’s gospel Jesus brings out two things to our attention: the true treasure and lamp. Today we are living in a highly materialistic world where a very large number of people seem to believe that material wealth is the solution of every problem. There is nothing that money cannot buy, no problem it cannot solve. This belief prevails even though it is shown to be false.
In the gospel Jesus urges us to put our trust and security in something less perishable, something more lasting. He says, “Store up treasure for yourself with God. Where no moth or rust can destroy nor thief come and steal it” (Mt.6:20). To ‘store up treasure in heaven’ is not just to pile up a whole of ‘good works’ but it can to our credit for the next life. And as Jesus wisely says, ‘where your treasure is, there will your heart be also’ (Mt. 6:21). Obviously, the question for us today is: where is our treasure? What do I value most in life? And how do I live with?
In the second part of the gospel Jesus says, “The lamp of the body is the eye” (Mt.6:22). That is to say, what I see with my inner eye determines everything else about my life. “If your eye that is your vision is sound, your whole body, that is, your whole being will be filled with light. But if your eye is diseased, your whole body will be all darkness” (Mt.6:23).
✍ -Fr. Isaac Ekka