वर्ष -1, ग्यारहवाँ सप्ताह, बुधवार

पहला पाठ : 2 कुरिन्थियों 9:6-11

6) इस बात का ध्यान रखें कि जो कम बोता है, वह कम लुनता है और जो अधिक बोता है, वह अधिक लुनता है।

7) हर एक ने अपने मन में जिनता निश्चित किया है, उतना ही दे। वह अनिच्छा से अथवा लाचारी से ऐसा न करे, क्योंकि ‘‘ईश्वर प्रसन्नता से देने वाले को प्यार करता है’’।

8) ईश्वर आप लोगों को प्रचुर मात्रा में हर प्रकार का वरदान देने में समर्थ है, जिससे आप को कभी किसी तरह की कोई कमी नहीं हो, बल्कि हर भले काम के लिए चन्दा देने के लिए भी बहुत कुछ बच जाये।

9) धर्मग्रन्थ में लिखा है- उसने उदारतापूर्वक दरिद्रों को दान दिया है, उसकी धार्मिकता सदा बनी रहती है।

10) जो बोने वाले को बीज और खाने वाले को भोजन देता है, वह आप को बोने के लिए बीज देगा, उसे बढ़ायेगा और आपकी उदारता की अच्छी फसल उत्पन्न करेगा।

11) इस तरह आप लोग हर प्रकार के धन से सम्पन्न हो कर उदारता दिखाने में समर्थ होंगे।

सुसमाचार : मत्ती 6:1-6, 16-18

1) ’’सावधान रहो। लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने धर्मकार्यो का प्रदर्शन न करो, नहीं तो तुम अपने स्वर्गिक पिता के पुरस्कार से वंचित रह जाओगे।

2) जब तुम दान देते हो, तो इसका ढिंढोरा नहीं पिटवाओ।ढोंगी सभागृहों और गलियों में ऐसा ही किया करते हैं, जिससे लोग उनकी प्रशंसा करें। मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वे अपना पुरस्कार पा चुके हैं।

3) जब तुम दान देते हो, तो तुम्हारा बायाँ हाथ यह न जानने पाये कि तुम्हारा दायाँ हाथ क्या कर रहा है।

4) तुम्हारा दान गुप्त रहे और तुम्हारा पिता, जो सब कुछ देखता है, तुम्हें पुरस्कार देगा।

5) ’’ढोगियों की तरह प्रार्थना नहीं करो। वे सभागृहों में और चैकों पर खड़ा हो कर प्रार्थना करना पंसद करते हैं, जिससे लोग उन्हें देखें। मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वे अपना पुरस्कार पा चुके हैं।

6) जब तुम प्रार्थना करते हो, तो अपने कमरें में जा कर द्वार बंद कर लो और एकान्त में अपने पिता से प्रार्थना करो। तुम्हारा पिता, जो एकांत को भी देखता है, तुम्हें पुरस्कार देगा।

16 ढोंगियों की तरह मुँह उदास बना कर उपवास नहीं करो। वे अपना मुँह मलिन बना लेते हैं, जिससे लोग यह समझें कि वे उपवास कर रहें हैं। मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वे अपना पुरस्कार पा चुके हैं।

17) जब तुम उपवास करते हो, तो अपने सिर में तेल लगाओ और अपना मुँह धो लो,

18) जिससे लोगों को नहीं, केवल तुम्हारे पिता को, जो अदृश्य है, यह पता चले कि तुम उपवास कर रहे हो। तुम्हारा पिता, जो अदृश्य को भी देखता है, तुम्हें पुरस्कार देगा।

📚 मनन-चिंतन

’ईश्वर प्रसन्नता से देने वाले को प्यार करता है’ (2 कुरिन्थ 9:7)। यह संत पौलुस के कुरिन्थियों के दूसरे पत्र का एक महत्वपूर्ण वाक्यांश है। यह सिर्फ न केवल दान या भले कार्य तक सीमित नहीं है। बल्कि यह व्यक्ति के आंतरिक स्वाभाव का परिचयक है। क्योंकि कि ईश्वर बोने वाले को बीज और खाने वाले को भोजन देता है, वह आप को बोने के लिए बीज देगा, उसे बढ़ायेगा और आपकी उदारता की अच्छी फसल उत्पन्न करेगा (2 कुरिन्थ 9:10)। यदि हमें जीवन में अच्छी बीज उत्पन्न करना है तो हमें ईश्वर से अपने हदय से जुड़ा रहना होगा, क्योंकि ईश्वर सबका सृष्टिकर्त्ता है। हमें ईश्वर को अपना सर्वस्व देना होगा। संत पिता फ्रांसिस आज के सुसमाचार पाठ को हमारे ख्रीस्तीय जीवन के तीन स्तंभ के रूप में देखते है प्रार्थना, उपवास और भिक्षादान। उनके अनुसार उपवास का अर्थ है प्रलोभनों से अपने को दूर रखना, प्रार्थना हमें अपने स्वर्थ से छुटकारा दिलाता और भिक्षादान हमें अनावश्यक चीजें के उपयोग से मुक्त करता है।

आज हमें अपने धर्मकार्यों को सफलतापूवर्क निभाने के लिए हमें शास्त्रियों और ढ़ोगियों की तरह नहीं, वरन एक सच्चे हदय से प्रार्थना, उपवास और भिक्षदान करना है। प्रार्थना का अर्थ ही है ईश्वर से वार्तालाप करना।

फादर आइजक एक्का

📚 REFLECTION


“God loves the cheerful giver” (2Cor.9:7). This is St Paul’s second letter to the Corinthians is an important verse; this is not limited only to almsgiving and good works, it reveals the inner attitude of the people. Because God supplies seed to the sower and bread for food will supply and multiply your seed for sowing and increase the harvest of your righteousness(2Cor.9:10). If we have to produce seed in life then we have to get connected with the Lord; for he is the creator of all, and offer everything.

Pope Francis sees today’s gospel as the three pillars of Christian life: prayer, fasting and almsgiving, he says fasting makes turn away from the temptation, prayer frees us from our ego, and almsgiving keeps us away from hoarding unnecessary things. To fulfil our piety today we have to surpass the righteousness of the Pharisees and the scribes, and live the true spirit of prayer, fasting and almsgiving. The very meaning of prayer is to have conversation with God.

-Fr. Isaac Ekka


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Praise the Lord!