4) हम यह दावा इसलिए कर सकते हैं कि हमें मसीह के कारण ईश्वर पर भरोसा है।
5) इसका अर्थ यह नहीं कि हमारी कोई अपनी योग्यता है। हम अपने को किसी बात का श्रेय नहीं दे सकते। हमारी योग्यता का स्त्रोत ईश्वर है। उसने हमें एक नये विधान के सेवक होने के योग्य बनाया है
6) और यह विधान अक्षरों का नहीं, बल्कि आत्मा का है; क्योंकि अक्षर तो घातक हैं, किन्तु आत्मा जीवनदायक हैं।
7) उस विधान के अक्षर पत्थर पर अंकित थे और उसके द्वारा प्राणदण्ड दिया जाता था। फिर भी उसकी महिमामय घोषणा के फलस्वरूप मूसा का मुखमण्डल इतना दीप्तिमय हो गया था कि इस्राएली उस पर आँख जमाने में असमर्थ थे, यद्यपि मूसा के मुखमण्डल की दीप्ति अस्थायी थी।
8) यदि पुराना विधान इतना महिमामय था, तो आत्मा का विधान कहीं अधिक महिमामय होगा।
9) यदि दोषी ठहराने वाले विधान का सेवा-कार्य इतना महिमामय था, तो दोषमुक्त करने वाले विधान का सेवा-कार्य कहीं अधिक महिमामय होगा।
10) इस वर्तमान परमश्रेष्ठ महिमा के सामने वह पूर्ववर्ती महिमा अब निस्तेज हो गयी है।
11) यदि अस्थायी विधान इतना महिमामय था, तो चिरस्थायी विधान कहीं अधिक महिमामय होगा।
(17) "यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ।
(18) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - आकाश और पृथ्वी भले ही टल जाये, किन्तु संहिता की एक मात्रा अथवा एक बिन्दु भी पूरा हुए बिना नहीं टलेगा।
(19) इसलिए जो उन छोटी-से-छोटी आज्ञाओं में एक को भी भंग करता और दूसरों को ऐसा करना सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में छोटा समझा जायेगा। जो उनका पालन करता और उन्हें सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में बड़ा समझा जायेगा।
आज के सुसमाचार में केवल तीन ही पद है। तथापि, यह एक शाक्तिशाली संदेश है। प्रभु येसु अपने शिष्यों को यह कहते हुए शुरूआत करते हैं कि उनका उद्द्ेश्य संहिता को रद्द करना या आलोचना करना नहीं था जिन्हें नबियों ने घोषित और सिखाया था प्रभु येसु की इच्छा सभी लेखों को पुरा करना था। प्रभु येसु जोर देकर कहते हैं कि आज्ञाओं का पालन करना आवश्यक है।
हलाँकि फरीसियों की दृष्टि में, प्रभु येसु ने यहुदियों की आज्ञाओं का उलंघन भी किया। वे उनेकों बार प्रभु येसु की आलोचना किए कि वे उनके आज्ञाओं का पालन नहीं करते ऐसा उन्होंने विश्वास किया कि वे उन्हें इनका पालन करना चाहिए और उनके पास आलोचना करने का आधार था। उन्होंने उन लेखों को नहीं अपनाया जैसा फरीसियों में सोचा और पालन किया। फरीसियों ने लेखों का अक्षरसः पालन किया।
प्रभु येसु हलाँकि एक अलग तरह के लेख को अपनाया, प्रेम के लेख। प्रभु येसु बहुधा यहुदियों के लेखों और परम्पराओं का पालन किया। तथपि, जब भी मनुष्यों की आवश्यकता की जरूरत थी, तो उन्होंने प्रेम और दया को अपनाया, प्रभु येसु ईश्वर के लेख के अनुसार जीवन जीया। हाँ उनके लिए सभी आज्ञाएँ महत्वपूर्ण एवं आश्वयक है। प्रभु येसु के लिए पहले दो आज्ञाएँ महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। प्रभु येसु के लिए पहले दो आज्ञाएँ बाकी सभी आज्ञाओं का आधार है ईश्वरीय प्रेम और पड़ोसी प्रेम।
✍फादर आइजक एक्काThe gospel reading of today has only three verses. However, it has a powerful message. Jesus begins by telling his disciples that his purpose is not to abolish law or to criticize what the prophets proclaimed and taught. Jesus’ intent was to fulfil the law. Jesus emphasises that keeping the commandment is essential.
However, in the eyes of the Pharisees, Jesus frequently disobeyed Jewish law. They often criticized him for not following the law- at least as they believed it should be obeyed. And they did have grounds for their criticism of Jesus. He did not follow the law as the Pharisees thought it should be followed. The Pharisees lived by the letter of the law.
Jesus however, lived by a different law, the law of love! He followed most of the Jewish laws and customs. However, when it came to people in need of love and compassion, he lived by the law of God! Yes, all the commandments are important and necessary. For Jesus, the first two commandments are the foundation for the other eight commandments: love of God and love of neighbour.
✍ -Fr. Isaac Ekka