5) प्रिय शब्दों से मित्रों की संख्या बढ़ती है और मधुर वाणी से मैत्रीपूर्ण व्यवहार।
6) तुम्हारे परिचित अनेक हों, किन्तु तुम्हारा परामर्शदाता सहस्रों में से एक।
7) परीक्षा लेने के बाद किसी को मित्र बना लो, उस पर तुरन्त विश्वास मत करो।
8) कोई मित्र अवसरवादी होता है, वह विपत्ति के दिन तुम्हारा साथ नहीं देगा।
9) कोई मित्र शत्रु बन जाता है और अलगाव का दोष तुम्हें ही देता है।
10) कोई मित्र तुम्हारे यहाँ खाता-पीता है, किन्तु विपत्ति के दिन दिखाई नहीं देता।
11) समृद्धि के दिनों में वह तुम्हारा अंतरंग मित्र बन कर तुम्हारे नौकरों पर रोब जमाता है,
12) किन्तु दुर्दिन आते ही वह तुम्हारा शत्रु बन कर तुम से मुँह फेर लेगा।
13) तुम अपने शत्रुओं से दूर रहो और अपने मित्रों से सावधान।
14) सच्चा मित्र प्रबल सहायक है; जिसे मिल जाता है, उसे खजाना प्राप्त है।
15) सच्चा मित्र एक अमूल्य निधि है, उसकी कीमत धन से चुकायी नहीं जा सकती।
16) सच्चा मित्र संजीवनी है, वह प्रभु-भक्तों को ही प्राप्त होता है।
17) प्रभु-भक्त मित्रता का निर्वाह करता है; वह जैसा है, उसका मित्र वैसा ही होगा।
1) वहाँ से विदा हो कर ईसा यहूदिया और यर्दन के पार के प्रदेश पहुँचे। एक विशाल जनसमूह फिर उनके पास एकत्र हो गया और वे अपनी आदत के अनुसार लोगों को शिक्षा देते रहे।
2 फ़रीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए उन्होंने प्रश्न किया, “क्या अपनी पत्नी का परित्याग करना पुरुष के लिए उचित है?“
3) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया? "मूसा ने तुम्हें क्या आदेश दिया?"
4) उन्होंने कहा, “मूसा ने तो त्यागपत्र लिख कर पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी"।
5) ईसा ने उन से कहा, "उन्होंने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही यह आदेश लिखा।
6) किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ ही से ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया;
7) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और दोनों एक शरीर हो जायेंगे।
8) इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं।
9) इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।"
10) शिष्यों ने, घर पहुँच कर, इस सम्बन्ध में ईसा से फिर प्रश्न किया
11) और उन्होंने यह उत्तर दिया, "जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह पहली के विरुद्ध व्यभिचार करता है
12) और यदि पत्नी अपने पति का त्याग करती और किसी दूसरे पुरुष से विवाह करती है, तो वह व्यभिचार करती है"।