वर्ष -1, सातवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ : प्रवक्ता-ग्रन्थ 2:1-11

1) पुत्र! यदि तुम प्रभु की सेवा करना चाहते हो, तो विपत्ति का सामना करने को तैयार हो जाओ।

2) तुम्हारा हृदय निष्कपट हो, तुम दृढ़संकल्प बने रहो, विपत्ति के समय तुम्हारा जी नही घबराये।

3) ईश्वर से लिपटे रहो, उसे मत त्यागो, जिससे अन्त में तुम्हारा कल्याण हो।

4) जो कुछ तुम पर बीतेगा, उसे स्वीकार करो तथा दुःख और विपत्ति में धीर बने रहो;

5) क्योंकि अग्नि में स्वर्ण की परख होती है और दीन-हीनता की घरिया में ईश्वर के कृपापात्रों की।

6) ईश्वर पर निर्भर रहो और वह तुम्हारी सहायता करेगा। प्रभु के भरोसे सन्मार्ग पर आगे बढ़ते जाओ।

7) प्रभु के श्रद्धालु भक्तो! उसकी दया पर भरोसा रखो। मार्ग से मत भटको; कहीं पतित न हो जाओ।

8) प्रभु के श्रद्धालु भक्तों! उस पर भरोसा रखो और तुम्हें निश्चय ही पुरस्कार मिलेगा।

9) प्रभु के श्रद्धालु भक्तो! उसके उपकारों की, चिरस्थायी आनन्द और दया की प्रतीक्षा करो।

10) प्रभु के श्रद्धालु भक्तों! उस से प्रेम रखो और तुम्हारे हृदयों में प्रकाश का उदय होगा।

11) पिछली पीढ़ियों पर विचार कर देखो किसने ईश्वर पर भरोसा रखा और वह निराश हुआ?

सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 9:30-37

30) वे वहाँ से चल कर गलीलिया पार कर रहे थे। ईसा नहीं चाहते थे कि किसी को इसका पता चले,

31) क्योंकि वे अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे। ईसा ने उन से कहा, ’’मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसे मार डालेंगे और मार डाले जाने के बाद वह तीसरे दिन जी उठेगा।’’

32) शिष्य यह बात नहीं समझ पाते थे, किन्तु ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।

33) वे कफ़रनाहूम आये। घर पहुँच कर ईसा ने शिष्यों से पूछा, ’’तुम लोग रास्ते में किस विषय पर विवाद कर रहे थे?’’

34) वे चुप रह गये, क्योंकि उन्होंने रास्ते में इस पर वाद-विवाद किया था कि हम में सब से बड़ा कौन है।

35) ईसा बैठ गये और बारहों को बुला कर उन्होंने उन से कहा, ’’जो पहला होना चाहता है, वह सब से पिछला और सब का सेवक बने’’।

36) उन्होंने एक बालक को शिष्यों के बीच खड़ा कर दिया और उसे गले लगा कर उन से कहा,

37) ’’जो मेरे नाम पर इन बालकों में किसी एक का भी स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह मेरा नहीं, बल्कि उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है।’’


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