4) जिस प्रकार प्रभु-ईश्वर ने पृथ्वी और आकाश बनाया,
5) उस समय पृथ्वी पर न तो जंगली पौधे थे और न खेतों में घास उगी थी; क्योंकि प्रभु-ईश्वर ने पृथ्वी पर पानी नहीं बरसाया था और कोई मनुष्य भी नहीं था, जो खेती-बारी करें;
6) किन्तु भूमि में से जलप्रवाह निकले और समस्त धरती सींचने लगे।
7) प्रभु ने धरती की मिट्ठी से मनुष्य को गढ़ा और उसके नथनों में प्राणवायु फूँक दी। इस प्रकार मनुष्य एक सजीव सत्व बन गया।
8) इसके बाद ईश्वर ने पूर्व की ओर, अदन में एक वाटिका लगायी और उस में अपने द्वारा गढ़े मनुष्य को रखा।
9) प्रभु-ईश्वर ने धरती से सब प्रकार के वृक्ष उगायें, जो देखने में सुन्दर थे और जिनके फल स्वादिष्ट थे। वाटिका के बीचोंबीच जीवन-वृक्ष था और भले-बुरे के ज्ञान का वृक्ष भी।
15) प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को अदन की वाटिका में रख दिया, जिससे वह उसकी खेती-बारी और देखरेख करता रहे।
16) प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को यह आदेश दिया, ''तुम वाटिका के सभी वृक्षों के फल खा सकते हो,
17) किन्तु भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना; क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे''।
14) ईसा ने बाद में लोगों को फिर अपने पास बुलाया और कहा, ’’तुम लोग, सब-के-सब, मेरी बात सुनो और समझो।
15) ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बाहर से मनुष्य में प्रवेश कर उसे अशुद्ध कर सके; बल्कि जो मनुष्य में से निकलता है, वही उसे अशुद्ध करता है।
16) जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले!
17) जब ईसा लोगों को छोड़ कर घर आ गये थे, तो उनके शिष्यों ने इस दृष्टान्त का अर्थ पूछा
18) ईसा ने कहा, ’’क्या तुम लोग भी इतने नासमझ हो? क्या तुम यह नहीं समझते कि जो कुछ बाहर से मनुष्य में प्रवेश करता है, वह उसे अशुद्ध नहीं कर सकता?
19) क्योंकि वह तो उसके मन में नहीं, बल्कि उसके पेट में चला जाता है और शौचघर में निकलता है।’’ इस तरह वह सब खाद्य पदार्थ शुद्ध ठहराते थे।
20) ईसा ने फिर कहा, ’’जो मनुष्य में से निकलता है, वही उसे अशुद्ध करता है।
21) क्योंकि बुरे विचार भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से निकलते हैं। व्यभिचार, चोरी, हत्या,
22) परगमन, लोभ, विद्वेष, छल-कपट, लम्पटता, ईर्ष्या, झूठी निन्दा, अहंकार और मूर्खता-
23) ये सब बुराइयाँ भीतर से निकलती है और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।
आज के सुसमाचार पढ़ने में येसु उन लोगों को जवाब दे रहा है जो बाहरी अनुष्ठान, और बाहरी आडम्बरों के पालन पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं, और इस बात पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं कि भीतर उनके दिल में, उनके आंतरिक संसार में क्या चल रहा है। हमारा आंतरिक संसार, जिसे सुसमाचार हमारा हृदय कहता है, भले और बुरे दोनों का स्रोत बन सकता है। यीशु को यह ज्ञात हो गया था कि हम इंसान किसी बड़ी व गंभीर बुराई के साथ-साथ महान से महान, अच्छे काम करने के लिए भी सक्षम हैं। वे चाहते थे कि लोगों के दिलों में वह सब कुछ हो जो अच्छा, उत्तम और जीवन देने वाला हो। पर्वत प्रवचन में वे कहते है - "धन्य हैं वे जिनका ह्रदय निर्मल है वे ईश्वर के दर्शन करेंगे। " वह उन लोगों को धन्य घोषित कर रहे थे, जिनका दिल सही जगह पर था, याने जिनका दिल ईश्वर पर नियत था , जिनका इरादा हमारे जीवन और हमारी दुनिया के लिए ईश्वर की इच्छा पर केंद्रित है । हमें अपने दिलों को भरने के लिए पवित्र आत्मा का आह्वान करते रहना चाहिए, ताकि हम येसु के समान हृदय के पवित्र हों ताकि हम उनके दर्शन कर पाएं।
✍ -फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)
In the Gospel reading Jesus is responding to those who pay too much attention to external ritual, external observance, and not enough attention to what is going on within, in their heart, their inner core. Jesus declares that it is from within, from people’s hearts, that evil intentions emerge. Our inner core, what the gospel calls our ‘heart’, can be a reservoir for good, but it can also be a reservoir for evil. Jesus seems to have been very aware that we are capable of great evil as well as great good. He wanted people to have hearts that were the wellspring of all that is good, wholesome and life-giving. You may recall one of the beatitudes he spoke, ‘Blessed are the pure in heart, for they shall see God’. He was declaring blessed those whose heart is in the right place, as we might say today, those whose heart is fixed on God, whose intention is centred on what God wants, on God’s will, God’s desire for our lives and our world. It is from such a heart that great good comes. Only harm can come from a heart that is fixed on self, centred on its own comfort and pleasure. We need to keep calling on the Holy Spirit to fill our hearts, so that we are as pure in heart as Jesus was, as focused on God’s will for our lives as he was.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore)