20) ईश्वर ने कहा, ''पानी जीवजन्तुओं से भर जाये और आकाश के नीचे पृथ्वी के पक्षी उड़ने लगें''।
21) ईश्वर ने मकर और नाना प्रकार के जीवजन्तुओं की सृष्टि की, जो पानी में भरे हुए हैं और उसने नाना प्रकार के पक्षियों की भी सृष्टि की, और यह ईश्वर को अच्छा लगा।
22) ईश्वर ने उन्हें यह आशीर्वाद दिया, ''फलोफूलो। समुद्र के पानी में भर जाओ और पृथ्वी पर पक्षियों की संख्या बढ़ती जाये''।
23) सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह पाँचवा दिन था।
24) ईश्वर ने कहा, ''पृथ्वी नाना प्रकार के घरेलू और जमीन पर रेंगने वाले जीवजन्तुओं को पैदा करें'', और ऐसा ही हुआ।
25) ईश्वर ने नाना प्रकार के जंगली, घरेलू और जमीन पर रेंगने वाले जीवजन्तुओं को बनाया और यह ईश्वर को अच्छा लगा।
26) ईश्वर ने कहा, ''हम मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनायें, यह हमारे सदृश हो। वह समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों घरेलू और जंगली जानवरों और जमीन पर रेंगने वाले सब जीवजन्तुओं पर शासन करें।''
27) ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया; उसने उसे ईश्वर का प्रतिरूप बनाया; उसने नर और नारी के रूप में उनकी सृष्टि की।
28) ईश्वर ने यह कह कर उन्हें आशीर्वाद दिया, ''फलोफूलो। पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधीन कर लो। समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों और पृथ्वी पर विचरने वाले सब जीवजन्तुओं पर शासन करो।''
29) ईश्वर ने कहा, मैं तुम को पृथ्वी भर के बीज पैदा करने वाले सब पौधे और बीजदार फल देने वाले सब पेड़ देता हूँ। वह तुम्हारा भोजन होगा। मैं सब जंगली जानवरों को, आकाश के सब पक्षियों को,
30) पृथ्वी पर विचरने वाले जीवजन्तुओं को उनके भोजन के लिए पौधों की हरियाली देता हूँ'' और ऐसा ही हुआ।
31) ईश्वर ने अपने द्वारा बनाया हुआ सब कुछ देखा और यह उसको अच्छा लगा। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह छठा दिन था।
1) इस प्रकार आकाश तथा पृथ्वी और, जो कुछ उन में है, सब की सृष्टि पूरी हुई।
2) सातवें दिन ईश्वर का किया हुआ कार्य समाप्त हुआ। उसने अपना समस्त कार्य समाप्त कर, सातवें दिन विश्राम किया।
3) ईश्वर ने सातवें दिन को आशीर्वाद दिया और उसे पवित्र माना; क्योंकि उस दिन उसने सृष्टि का समस्त कार्य समाप्त कर विश्राम किया था।
4) यह है आकाश और पृथ्वी की उत्पत्ति का वृत्तांत।
1 फ़रीसी और येरुसालेम से आये हुए कई शास्त्री ईसा के पास इकट्ठे हो गये।
2) वे यह देख रहे थे कि उनके शिष्य अशुद्ध यानी बिना धोये हाथों से रोटी खा रहे हैं।
3) पुरखों की परम्परा के अनुसार फ़रीसी और सभी यहूदी बिना हाथ धोये भोजन नहीं करते।
4) बाज़ार से लौट कर वे अपने ऊपर पानी छिड़के बिना भोजन नहीं करते और अन्य बहुत-से परम्परागत रिवाज़ों का पालन करते हैं- जैसे प्यालों, सुराहियों और काँसे के बरतनों का शुद्धीकरण।
5) इसलिए फ़रीसियों और शास्त्रियों ने ईसा से पूछा, ’’आपके शिष्य पुरखों की परम्परा के अनुसार क्यों नहीं चलते? वे क्यों अशुद्ध हाथों से रोटी खाते हैं?
6) ईसा ने उत्तर दिया, ’’इसायस ने तुम ढोंगियों के विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है। जैसा कि लिखा है- ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है।
7) ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं; और ये जो शिक्षा देते हैं, वे हैं मनुष्यों के बनाये हुए नियम मात्र।
8) तुम लोग मनुष्यों की चलायी हुई परम्परा बनाये रखने के लिए ईश्वर की आज्ञा टालते हो।’’
9) ईसा ने उनसे कहा, ’’तुम लोग अपनी ही परम्परा का पालन करने के लिए ईश्वर की आज्ञा रद्द करते हो;
10) क्योंकि मूसा ने कहा, अपने पिता और अपनी माता का आदर करो; और जो अपने पिता या अपनी माता को शाप दे, उसे प्राणदण्ड दिया जाय।
11) परन्तु तुम लोग यह मानते हो कि यदि कोई अपने पिता या अपनी माता से कहे- आप को मुझ से जो लाभ हो सकता था, वह कुरबान (अर्थात् ईश्वर को अर्पित) है,
12) तो उस समय से वह अपने पिता या अपनी माता के लिए कुछ नहीं कर सकता है।
13) इस तरह तुम लोग अपनी परम्परा के नाम पर, जिसे तुम बनाये रखते हो, ईश्वर का वचन रद्द करते हो और इस प्रकार के और भी बहुत-से काम करते रहते हो।’’
आज के सुसमाचार में, येसु फरीसियों का सामना करते है क्योंकि उनकी विभिन्न परंपराएँ, जिनके बारे में वे बहुत अधिक उत्साहित रहते हैं, हमेशा परमेश्वर के वचन के अनुरूप नहीं होते हैं। जैसा कि येसु उनसे कहते हैं- "इस तरह तुम लोग अपनी परम्परा के नाम पर, जिसे तुम बनाये रखते हो, ईश्वर का वचन रद्द करते हो और इस प्रकार के और भी बहुत-से काम करते रहते हो।" यीशु के शब्द हमें याद दिलाते हैं कि प्रत्येक धार्मिक परंपरा स्वीकार्य नहीं है । क्योकि कई मानव निर्मित परम्पराएं ईश्वर के वचन के ख़िलाफ़ होती हैं। हमें यह पूछना होगा कि क्या यह या वह परंपरा वास्तव में हमारे जीवन के लिए ईश्वर की इच्छा के अनुसार है, जैसा कि धर्म ग्रन्थ में बताया गया है। इसलिए ईश्वर के वचन को सुनना हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। पोप फ्रांसिस इस बात को लेकर बहुत उत्सुक हैं। कई बार उन्होंने लोगों को अपनी जेब में सुसमाचार की एक छोटी प्रति रखने और हर दिन इसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। प्रभु येसु ही वह जीवीत वचन है जो आदि काल से विद्यमान था और अपने नियत समय में वह शरीर धारण कर मनुष्य बन गया। येसु में मौजूद ख़ुदा के वचन को सुनने में, हमारी धार्मिक परंपराओं सहित हमारी परंपराओं के मूल्य का आकलन करने में येसु हमारी मदद करें। आमेन।
✍ -फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)
In this morning’s gospel reading, Jesus confronts the Pharisees because their various traditions, about which they are so zealous, are not always in harmony with the word of God. As Jesus says to them, ‘You make God’s word null and void for the sake of your tradition which you have handed down’. The words of Jesus remind us that not every religious tradition is worth holding on to. Every tradition has to be measured against the word of God. We have to keep asking if this or that tradition is really in keeping with God’s will for our lives as revealed in the Scriptures. That is why it is so important for us to keep listening to the word of God. Pope Francis is very keen that, in particular, we listen to the gospels on a regular basis. More than once he has encouraged people to keep a small copy of the gospels in their pocket and to read from it every day. It is above all in the gospels that we encounter the Word who was with God in the beginning and who became flesh and dwelt among us. Jesus not only speaks God’s word but he is God’s word in human flesh. In listening to God’s word, present in Jesus, we are helped to assess the value of our traditions, including our religious traditions.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore)