15) हम ईसा के द्वारा ईश्वर को स्तुति का बलिदान अर्थात् उसके नाम की महिमा करने वाले होंठों का फल-निरन्तर चढ़ाना चाहते हैं।
16) आप लोग परोपकार और एक दूसरे की सहायता करना कभी नहीं भूलें, क्योंकि इस प्रकार के बलिदान ईश्वर को प्रिय होते हैं
17) आपके नेताओं को दिन-रात आपकी आध्यात्मिक भलाई की चिन्ता रहती है, क्योंकि वे इसके लिए उत्तरदायी हैं। इसलिए आप लोग उनका आज्ञापालन करें और उनके अधीन रहें, जिससे वे अपना कर्तव्य आनन्द के साथ, न कि आहें भरते हुए, पूरा कर सकें; क्योंकि इस से आप को कोइ लाभ नहीं होगा।
20) शान्ति का ईश्वर जिसने शाश्वत विधान के रक्त द्वारा भेड़ों के महान् चरवाहे हमारे प्रभु ईसा को मृतकों में से पुनर्जीवित किया, आप लोगों को समस्त गुणों से सम्पन्न करे, जिससे आप उसकी इच्छा पूरी करें।
21) वह ईसा मसीह द्वारा हम में वह कर दिखाये, जो उसे प्रिय है। उन्हीं मसीह को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!
30) प्रेरितो ने ईसा के पास लौट कर उन्हें बताया कि हम लोगों ने क्या-क्या किया और क्या-क्या सिखलाया है।
31) तब ईसा ने उन से कहा, ’’तुम लोग अकेले ही मेरे साथ निर्जन स्थान चले आओ और थोड़ा विश्राम कर लो’’; क्योंकि इतने लोग आया-जाया करते थे कि उन्हें भोजन करने की भी फुरसत नही रहती थी।
32) इस लिए वे नाव पर चढ़ कर अकेले ही निर्जन स्थान की ओर चल दिये।
33) उन्हें जाते देख कर बहुत-से लोग समझ गये कि वह कहाँ जा रहे हैं। वे नगर-नगर से निकल कर पैदल ही उधर दौड़ पड़े और उन से पहले ही वहाँ पहुँच गये।
34) ईसा ने नाव से उतर कर एक विशाल जनसमूह देखा। उन्हें उन लोगों पर तरस आया, क्योंकि वे बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थे और वह उन्हें बहुत-सी बातों की शिक्षा देने लगे।
आज के सुसमाचार से हमें पता चलता है कि येसु आराम का मूल्य जानते थे । अपनी दिन भर की सेवकाई के बाद येसु अपने चेलों को एक एकांत स्थान ले गये ताकि वे थोड़ी देर आराम कर सकें। येसु और उसके चेलों के पास बहुत सारा काम था। वे चाहते तो चौबीस घंटे व्यस्त हो सकते थे। पर येसु और उनके शिष्यों ने हमेशा काम के बाद कुछ राहत का समय निकला ताकि वे प्रार्थना कर सके और आने वाले दिन के लिए तैयारी कर सके। येसु हमें सिखा रहे थे कि हमारे जीवन में काम से ज्यादा कुछ है। आराम का वह मूल्य बाइबल की उत्पत्ति के किताब के पहले अध्याय के पहले पेज में घोषित किया गया है, जिसके अनुसार ईश्वर छह दिनों तक सृष्टि के काम में लगे रहे और सातवें दिन आराम किया । ईश्वर के प्रतिरूप में सृजे इंसान को भी काम के समय काम और आराम के समय आराम करने की ज़रूरत है। आराम का समय चारों ओर देखने और ईश्वर के वरदानों के सराहना करने का अवसर है जो हमें ईश्वर ने दिया है; यह ईश्वर के कार्यों को अपने जीवन मे, दूसरों के जीवन में, और हमारी दुनिया में लेने का समय है। सुसमाचार में हम पढ़ते हैं, कि कभी - कभी जब येसु आराम करते थे और लोग उन्हें ढूंढते हुए आते थे तब येसु ने उन्हें डाँटकर भगाया नहीं पर बड़े अनुग्रह के साथ इसे समायोजित किया। कभी-कभी आराम करने की हमारी योजनाएं भी बाधित होती हैं और हमें समायोजित करना पड़ता है। आज की भागदौड़ की ज़िन्दगी में काम और कमाने के आलावा भी कुछ है। हम खुद के लिए, ईश्वर के लिए और अपनों के लिए खली समय निकालें।
✍ -फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)
The Gospel reading today suggests that Jesus knew the value of rest. After the disciples had engaged in a period of mission Jesus took them off to some lonely place so that they could rest for a while. There was plenty of work to be done. Jesus and his disciples could have been busy twenty four hours a day. Yet, every so often Jesus and his disciples stood back from their work. Jesus was teaching us that there is more to our lives than work. That value of rest is proclaimed in the very first page of the Bible, the first chapter of the Book of Genesis, according to which God rested on the seventh day having engaged in the work of creation for six days. As people made in God’s image, we need to rest as well as work. A time of rest is an opportunity to look around and appreciate what we have been given; it is a time to take in God’s work, in our own lives, in the lives of others, in our world. In the gospel reading, Jesus’ time of rest with his disciples was interrupted by people who sought him out, and Jesus adjusted to that with great grace. Sometimes our plans for times of rest will be interrupted too and we have to adjust. Yet, we continue to seek out times and places of rest in the course of our lives, times when we hand over the initiative to the Lord.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore)