4) अब तक आप को पाप से संघर्ष करने में अपना रक्त नहीं बहाना पड़ा।
5) क्या आप लोग धर्मग्रन्थ का यह उपदेश भूल गये हैं, जिस में आप को पुत्र कह कर सम्बोधित किया गया है? -मेरे पुत्र! प्रभु के अनुशासन की उपेक्षा मत करो और उसकी फटकार से हिम्मत मत हारो;
6) क्योंकि प्रभु जिसे प्यार करता है, उसे दण्ड देता है और जिसे पुत्र मानता है, उसे कोड़े लगाता है।
7) आप जो कष्ट सहते हैं, उसे पिता का दण्ड समझें, क्योंकि वह इसका प्रमाण है, कि ईश्वर आप को पुत्र समझ कर आपके साथ व्यवहार करता है। और कौन पुत्र ऐसा है, जिसे पिता दण्ड नहीं देता?
11) जब दण्ड मिल रहा है, तो वह सुखद नहीं, दुःखद प्रतीत होता है; किन्तु जो दण्ड द्वारा प्रशिक्षित होते हैं, वे बाद में धार्मिकता का शान्तिप्रद फल प्राप्त करते हैं।
12) इसलिए ढीले हाथों तथा शिथिल घुटनों को सबल बना लें।
13) और सीधे पथ पर आगे बढ़ते जायें, जिससे लंगड़ा भटके नहीं, बल्कि चंगा हो जाये।
14) सबों के साथ शान्ति बनाये रखें और पवित्रता की साधना करें। इसके बिना कोई ईश्वर के दर्शन नहीं कर पायेगा।
15) आप सावधान रहें- कोई ईश्वर की कृपा से वंचित न हो। ऐसा कोई कड़वा और हानिकर पौधा पनपने न पाये, जो समस्त समुदाय को दूषित कर दे।
1) वहाँ से विदा हो कर ईसा अपने शिष्यों के साथ अपने नगर आये।
2) जब विश्राम-दिवस आया, तो वे सभागृह में शिक्षा देने लगे। बहुत-से लोग सुन रहे थे और अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ’’यह सब इसे कहाँ से मिला? यह कौन-सा ज्ञान है, जो इसे दिया गया है? यह जो महान् चमत्कार दिखाता है, वे क्या हैं?
3) क्या यह वही बढ़ई नहीं है- मरियम का बेटा, याकूब, यूसुफ़, यूदस और सिमोन का भाई? क्या इसकी बहनें हमारे ही बीच नहीं रहती?’’ और वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके।
4) ईसा ने उन से कहा, ’’अपने नगर, अपने कुटुम्ब और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता’।
5) वे वहाँ कोई चमत्कार नहीं कर सके। उन्होंने केवल थोड़े-से रोगियों पर हाथ रख कर उन्हें अच्छा किया।
6) उन लोगों के अविश्वास पर ईसा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
हिंदी में एक कहावत है - 'घर की मुर्गी दाल बराबर' । यह आज के सुसमाचार में सच होते दीखता है।नासरत के लोग येसु और उसके परिवार से भली- भांति परिचित थे। वह उन लोगों के साथ किसी भी अन्य लड़कों की तरह बढ़ता गया, जिसमें उनके साथ कुछ भी असाधारण नहीं था जो लोगों का ध्यान आकर्षित करेगा या लोगों को उन्हें किसी महान व्यक्ति के रूप में देखने के लिए प्रेरित करे। यही कारण है कि उनके दिव्य ज्ञान और चमत्कार के उनके शक्तिशाली कार्यों के साथ उनके उपदेश को उनके अपने लोगों द्वारा बहुत अधिक महत्व नहीं दिया गया था। यही कारण है कि योहन अपने सुसमाचार में लिखते हैं - "वह अपने यहाँ आया और उसके अपने लोगों ने उसे नहीं अपनाया।" (योहन 1:11)।
येसु की अस्वीकृति ने उनकी सेवकाई के उत्साह को प्रभावित नहीं किया। उन्होंने अपनी सेवकाई को जारी रखा क्योंकि वह अपनी महिमा के लिए या किसी को खुश करने के लिए कुछ भी नहीं कर रहे थे। वह यह केवल अपने स्वर्गीय पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए कर रहे थे। ईश्वर के एक सच्चे अनुयायी को कोई अवरोध, निराशा या अत्याचार ईश्वर की राह पर चलने में नहीं रोक सकता। हमें हमारे गुरु येसु के पद चिन्हों पर चलते हुए वही करना चाहिए जो प्रभु हमसे करवाना चाहते हैं और प्रभु हमारे लिए सेवकाई के लिए नए द्वार खोलेंगे। आमेन।
✍ -फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)
There is a saying in English familiarity brings contempt. This is very true of the Gospel today. The people of Nazareth were familiar with Jesus and his family. He grew with them just like any other boys with nothing extraordinary in him which would draw the attention of the people or would make people to regard him someone great. That is why his preaching with the divine wisdom and his mighty works of miracles were not given much importance by his own people. That is why John writes in his Gospel – “He came to his own and his own did not receive him.” (Jn. 1:11).
The rejection of Jesus did not affect his enthusiasm and zeal for his ministry. He continued his ministry for he was not doing anything either for his own glory or to please someone. He was doing it only to do the will of his heavenly Father. A true follower of Christ does not let rejections and disappointment keep him from serving God. Following the master’s footstep we must keep doing what the Lord wants us to do and the Lord will open new doors for our ministry.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore)