32) मैं और क्या कहूँ? गिदियोन, बराक, समसोन, यिफ़्तह, दाऊद, समूएल और अन्य नबियों की चरचा करने की मुझे फुरसत नहीं।
33) उन्होंने अपने विश्वास द्वारा राज्यों को अपने अधीन कर लिया, न्याय का पालन किया, प्रतिज्ञाओं का फल पाया, सिंहों का मुँह बन्द दिया
34) और प्रज्वलित आग बुझायी। वे तलवार की धार से बच गये और दुर्बल होने पर भी शक्तिशाली बन गये। उन्होंने युद्ध में वीरता का प्रदर्शन किया और विदेशी सेनाओं को भगा दिया।
35) स्त्रियों ने अपने पुनर्जीवित मृतकों को फिर प्राप्त किया। कुछ लोग यन्त्रणा सह कर मर गये और उस से इसलिए छुटकारा नहीं चाहते थे कि उन्हें श्रेष्ठतर पुनरुत्थान प्राप्त हो।
36) उपहास, कोड़ों, बेडि़यों और बन्दीगृह द्वारा कुछ लोगों की परीक्षा ली गयी है।
37) कुछ लोग पत्थरों से मारे गये, कुछ आरे से चीर दिये गये और कुछ तलवार के घाट उतारे गये। कुछ लोग दरिद्रता, अत्याचार और उत्पीड़न के शिकार बन कर भेड़ों और बकरियों की खाल ओढ़े इधर-उधर भटकते रहे।
38) संसार उनके योग्य नहीं था। उन्हें उजाड़ स्थानों, पहाड़ी प्रदेशों, गुफाओं और धरती के गड्ढों की शरण लेनी पड़ी।
39) वे सभी अपने विश्वास के कारण ईश्वर के कृपापात्र बने गये। फिर भी उन्हें प्रतिज्ञा का फल प्राप्त नहीं हुआ
40) क्योंकि ईश्वर ने हम को दृष्टि में रख कर एक श्रेष्ठत्तर योजना बनायी थी। वह चाहता था कि वे हमारे साथ ही पूर्णता तक पहुँचे।
(1) ईसा यह विशाल जनसमूह देखकर पहाड़ी पर चढ़े और बैठ गए। उनके शिष्य उनके पास आये।
(2) और वे यह कहते हुए उन्हें शिक्षा देने लगेः
(3) "धन्य हैं वे, जो अपने को दीन-हीन समझते हैं! स्वर्गराज्य उन्हीं का है।
(4) धन्य हैं वे जो नम्र हैं! उन्हें प्रतिज्ञात देश प्राप्त होगा।
(5) धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं! उन्हें सान्त्वना मिलेगी।
(6) घन्य हैं, वे, जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं! वे तृप्त किये जायेंगे।
(7) धन्य हैं वे, जो दयालू हैं! उन पर दया की जायेगी।
(8) धन्य हैं वे, जिनका हृदय निर्मल हैं! वे ईश्वर के दर्शन करेंगे।
(9) धन्य हैं वे, जो मेल कराते हैं! वे ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे।
(10) धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के कारण अत्याचार सहते हैं! स्वर्गराज्य उन्हीं का है।
(11) धन्य हो तुम जब लोग मेरे कारण तुम्हारा अपमान करते हैं, तुम पर अत्याचार करते हैं और तरह-तरह के झूठे दोष लगाते हैं।
(12) खुश हो और आनन्द मनाओ - स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा। तुम्हारे पहले के नबियों पर भी उन्होंने इसी तरह अत्याचार किया।
(13) "तुम पृथ्वी के नमक हो। यदि नमक फीका पड़ जाये, तो वह किस से नमकीन किया जायेगा? वह किसी काम का नहीं रह जाता। वह बाहर फेंका और मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जाता है।
(14) "तुम संसार की ज्योति हो। पहाड़ पर बसा हुआ नगर छिप नहीं सकता।
(15) लोग दीपक जला कर पैमाने के नीचे नहीं, बल्कि दीवट पर रखते हैं, जहाँ से वह घर के सब लोगों को प्रकाश देता है।
(16) उसी प्रकार तुम्हारी ज्योति मनुष्यों के सामने चमकती रहे, जिससे वे तुम्हारे भले कामों को देख कर तुम्हारे स्वर्गिक पिता की महिमा करें।
(17) "यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ।
(18) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - आकाश और पृथ्वी भले ही टल जाये, किन्तु संहिता की एक मात्रा अथवा एक बिन्दु भी पूरा हुए बिना नहीं टलेगा।
(19) इसलिए जो उन छोटी-से-छोटी आज्ञाओं में एक को भी भंग करता और दूसरों को ऐसा करना सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में छोटा समझा जायेगा। जो उनका पालन करता और उन्हें सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में बड़ा समझा जायेगा।
(20) मैं तुम लोगों से कहता हूँ - यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फ़रीसियों की धार्मिकता से गहरी नहीं हुई, तो तुम स्वर्गराज्य में प्रवेश नहीं करोगे।
प्रिय विश्वासियों, आज हम सुसमाचार में एक अपदूत ग्रस्त की चंगाई के बारे में सुनते हैं। दर्शकों के लिए वह व्यक्ति एक आतंक था। परिवार के सदस्यों और अन्य लोगों ने उसे वश में करने के सारे प्रयास छोड़ दिए थे क्योंकि उसके अंदर शैतानी शक्ति इतनी अधिक थी कि किसी के लिए भी उसे नियंत्रण में रखना असंभव था। हम इस अपदूत ग्रस्त में एक पूर्ण विरोधाभास देखते हैं। यीशु का सामना करने से पहले, वह बहुत उग्र दिखाई दिया, लेकिन जब वह येसु की दिव्यता के संपर्क में आता है तो वह शांत हो जाता है और शांति के साथ यीशु के चरणों में बैठ जाता है। कोई भी जो येसु के साथ संपर्क में आता है और बदलने के लिए तैयार है वह अपनी पुरानी स्थिति में नहीं रह सकता है। बस हमें येसु को अपने जीवन में काम करने के लिए अपना जीवन उन्हें देने की जरूरत है। अपदूत ग्रस्त ने येसु को उसके अंदर के आत्माओं को सूअरों में भेजने को कहा ।
यह अपदूत ग्रस्त हमारे भीतर की कई कठोर व दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है जो हमारे जीवन में अपने गहरी पेठ जमाये हुए हैं। और हमें अपने स्वयं के मानवीय प्रयासों द्वारा ऐसी बुराइयों से बाहर आना बहुत मुश्किल लगता है। हमें ईश्वरीय हस्तक्षेप की आवश्यकता है; हमें बुराई के चंगुल से मुक्त करने के लिए ईश्वर की कृपा की आवश्यकता है। सूअरों का विनाश यह नहीं दर्शाता है कि यीशु जानवरों के विरोधी थे, बल्कि यह मानव जीवन के मूल्य को दर्शाता है। यीशु के लिए, ईश्वर के सदृश्य और स्वरुप में निर्मित व्यक्ति हजारों सूअरों की तुलना में बहुत अधिक मूल्यवान है। वह हर एक इंसान को बचाने के लिए इस दुनिया में आया और उसने अपनी जान भी दे दी। येसु ने चंगाई पाए व्यक्ति को उनकी सेवकाई में उनका अनुसरण करने देने के बजाय, उसे अन्यजातियों को सुसमाचार का एक जीवित गवाह बनने के लिए कहा।
आइए हम येसु को अपने जीवन में काम करने की अनुमति दें और हमारे भीतर की सभी कठोर और जिद्दी बुरी आदतों को बाहर निकालें और इस दुनिया में और येसु के शक्तिशाली कार्यों के साक्षी बनें। आमेन।
✍ -फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)
Dear Friends in the Gospel today we hear about a dramatic healing of a demoniac. To the onlookers the possessed person was a terror. The family members and the other people had given up on him for the evil power in him was so powerful that it was impossible for anyone to put him under control. We see a complete contrast in the behaviour of the demoniac. Before encountering Jesus, he appeared very hostile and furious, but when he comes in touch with the divinity of Jesus he becomes calm and quiet and with peace and serenity sits at the feet of Jesus. Nothing or no one that comes in touched with Jesus and is willing to change can remain in the same old situation. All one needs to do is to let Jesus work in his/her life. The demoniac allowed Jesus to cast the evil away into the pigs.
This demoniac represents many rigid evil tendencies in us which take the upper hand in our lives and we find it very difficult to come out of such evils by our own human efforts. We need the divine intervention; we need God's grace to set us free from the clutches of evil. The destruction of the pigs does not show that Jesus was anti-animals, rather it shows the value of human life. For Jesus person created in the image and likeness of God is much more valuable than thousands of pigs. He came into this world to save every individual human being and to save each one He even gives up His own life. Jesus instead of allowing the cured man to follow him in His ministry, He asks him to become a living witness of the Divine message to the gentiles the territory.
Lets us allow Jesus to work in our lives and drive out all the rigid and stubborn evil habits within us and become the witness of the mighty works of Jesus in and around our world. Amen.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore)