1) प्रत्येक प्रधानयाजक मनुष्यों में से चुना जाता और ईश्वर-सम्बन्धी बातों में मनुष्यों का प्रतिनिधि नियुक्त किया जाता है, जिससे वह भेंट और पापों के प्रायश्चित की बलि चढ़ाये।
2) वह अज्ञानियों और भूले-भटके लोगों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार कर सकता है, क्योंकि वह स्वयं दुर्बलताओं से घिरा हुआ है।
3) यही कारण है कि उसे न केवल जनता के लिए, बल्कि अपने लिए भी पापों के प्रायश्चित की बलि चढ़ानी पड़ती है।
4) कोई अपने आप यह गौरवपूर्ण पद नहीं अपनाता। प्रत्येक प्रधानयाजक हारुन की तरह ईश्वर द्वारा बुलाया जाता है।
5) इसी प्रकार, मसीह ने अपने को प्रधानयाजक का गौरव नहीं प्रदान किया। ईश्वर ने उन से कहा, - तुम मेरे पुत्र हो, आज मैंने तुम्हें उत्पन्न किया है।
6) अन्यत्र भी वह कहता है- तुम मेलखिसेदेक की तरह सदा पुरोहित बने रहोगे।
7) मसीह ने इस पृथ्वी पर रहते समय पुकार-पुकार कर और आँसू बहा कर ईश्वर से, जो उन्हें मृत्यु से बचा सकता था, प्रार्थना और अनुनय-विनय की। श्रद्धालुता के कारण उनकी प्रार्थना सुनी गयी।
8) ईश्वर का पुत्र होने पर भी उन्होंने दुःख सह कर आज्ञापालन सीखा।
9 (9-10) वह पूर्ण रूप से सिद्ध बन कर और ईश्वर से मेलखि़सेदेक की तरह प्रधानयाजक की उपाधि प्राप्त कर उन सबों के लिए मुक्ति के स्रोत बन गये, जो उनकी आज्ञाओं का पालन करते हैं।
18) योहन के शिष्य और फ़रीसी किसी दिन उपवास कर रहे थे। कुछ लोग आ कर ईसा से बोले, "योहन के शिष्य और फ़रीसी उपवास कर रहे हैं। आपके शिष्य उपवास क्यों नहीं करते?"
19) ईसा ने उत्तर दिया, "जब तक दुल्हा साथ है, क्या बाराती शोक मना सकते हैं? जब तक तक दुल्हा उनके साथ हैं, वे उपवास नहीं कर सकते हैं।
20) किन्तु वे दिन आयेंगे, जब दुल्हा उनसे बिछुड़ जायेगा। उन दिनों वे उपवास करेंगे।
21) "कोई पुराने कपड़े पर कोरे कपड़े का पैबन्द नहीं लगाता। नहीं तो नया पैबन्द सिकुड़ कर पुराना कपड़ा फाड़ देता है और चीर बढ़ जाती है।
22) कोई पुरानी मशकों में नयी अंगूरी नहीं भरता। नहीं तो अंगूरी मशकों फाड़ देती है और अंगूरी तथा मशकें, बरबाद हो जाती हैं। नयी अंगूरी को नयी मशको में भरना चाहिए।"
आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि कुछ फरीसी लोग प्रभु येसु से सवाल करते हैं कि उनके शिष्य अन्य शिष्यों की भाँति उपवास क्यों नहीं करते, और प्रभु येसु उनके उपवास के विरुद्ध कुछ नहीं कहते बल्कि उन्हें उपवास करने का कारण और समय के बारे में समझाते हैं। प्रभु येसु स्वयं को दूल्हे और अपने शिष्यों को बारातियों से तथा समय को आनन्द मनाने के समय से तुलना करते हैं।
उपवास करने का कुछ ना कुछ कारण होता है। अक्सर उपवास का उद्धेश्य पापों के लिए पश्चताप एवं शुद्धीकरण है, साथ ही उपवास के द्वारा हम अपना मन अनावश्यक वस्तुओं से हटाकर ईश्वर की ओर लगाते हैं। जब ईश्वर हमारे बीच है तो यह आनन्द मनाने का समय न कि शोक मनाने का। लेकिन जब हम अपने पाप के कारण ईश्वर से दूर हो जाते हैं तब हमें शोक मनाने और उपवास करने की ज़रूरत है। चूँकि प्रभु येसु के शिष्य हमेशा उनके साथ थे, तो उन्हें उपवास करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। लेकिन जब वे ईश्वर दूर हो जाएँगे तो उन्हें उपवास करने की ज़रूरत पड़ेगी। क्या ईश्वर मेरे साथ हैं? यदि ईश्वर मेरे साथ है तो क्या मैं उनकी उपस्थिति में आनन्द मनाता हूँ? यदि मेरे जीवन में ईश्वर की उपस्थिति का आनन्द नहीं है तो ज़रूर मुझे उपवास करने की ज़रूरत है।
✍ -फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
In today's gospel we see some Pharisees question Jesus as why his disciples do not fast unlike the disciples of Pharisees and John the Baptist. And Jesus does not speak anything against their fasting but tells them about the right time and situation for his disciples to fast. Jesus compares himself with bridegroom and his disciples with wedding guests, and the time as the occasion of joy.
Fasting is generally meant for a purpose. Very often fasting is associated with the atonement of sins or penance for the sins. It is also a means of self purification or focusing our heart and mind to God. When God is already present amidst us, then it is time for rejoicing and feasting not fasting. But when we are separated from God through our sins then it is the time to fast. The disciples were always with Jesus so there was no point in fasting. But when they are away from God, then they need to fast. Do I have God with me? If yes, do I radiate the joy of his presence? If I am not filled with the joy of God’s presence in my life, then I certainly need to fast.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)