5) ईश्वर ने उस भावी संसार को, जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं, स्वर्गदूतों के अधीन नहीं किया है।
6) इसके सम्बन्ध में कोई धर्मग्रन्थ में यह साक्ष्य देता है- मनुष्य क्या है, जो तू उसकी सुधि ले? मनुष्य का पुत्र क्या है, जो तू उसकी देखभाल करे?
7) तूने उसे स्वर्गदूतों से कुछ ही छोटा बनाया और उसे महिमा तथा सम्मान का मुकुट पहनाया।
8) तूने सब कुछ उसके पैरों तले डाल दिया। जब ईश्वर ने सब कुछ उसके अधीन कर दिया, तो उसने कुछ भी ऐसा नहीं छोड़ा, जो उसके अधीन न हो। वास्तव में हम अब तक यह नहीं देखते कि सब कुछ उसके अधीन है।
9) परन्तु हम यह देखते हैं कि मृत्यु की यन्त्रणा सहने के कारण ईसा को महिमा और सम्मान का मुकुट पहनाया गया है। वह स्वर्गदूतों से कुछ ही छोटे बनाये गये थे, जिससे वह ईश्वर की कृपा से प्रत्येक मनुष्य के लिए मर जायें।
10) ईश्वर, जिसके कारण और जिसके द्वारा सब कुछ होता है, बहुत-से पुत्रों को महिमा तक ले जाना चाहता था। इसलिए यह उचित था कि वह उन सबों की मुक्ति के प्रवर्तक हो, अर्थात् ईसा को दुःखभोग द्वारा पूर्णता तक पहुँचा दे।
11) जो पवित्र करता है और जो पवित्र किये जाते हैं, उन सबों का पिता एक ही है; इसलिए ईसा को उन्हें अपने भाई मानने में लज्जा नहीं होती और वह कहते हैं -
12) मैं अपने भाइयों के सामने तेरे नाम का ब़खान करूँगा, मैं सभाओं में तेरा गुणगान करूँगा।
21) वे कफ़नाहूम आये। जब विश्राम दिवस आया, तो ईसा सभागृह गये और शिक्षा देते रहे।
22) लोग उनकी शिक्षा सुनकर अचम्भे में पड़ जाते थे; क्योंकि वे शास्त्रियों की तरह नहीं, बल्कि अधिकार के साथ शिक्षा देते थे।
23) सभागृह में एक मनुष्य था, जो अशुद्ध आत्मा के वश में था। वह ऊँचे स्वर से चिल्लाया,
24) "ईसा नाज़री! हम से आप को क्या? क्या आप हमारा सर्वनाश करने आये हैं? मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं- ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष।"
25) ईसा ने यह कहते हुए उसे डाँटा, "चुप रह! इस मनुष्य से बाहर निकल जा"।
26) अपदूत उस मनुष्य को झकझोर कर ऊँचे स्वर से चिल्लाते हुए उस से निकल गया।
27) सब चकित रह गये और आपस में कहते रहे, "यह क्या है? यह तो नये प्रकार की शिक्षा है। वे अधिकार के साथ बोलते हैं। वे अशुद्ध आत्माओं को भी आदेश देते हैं और वे उनकी आज्ञा मानते हैं।"
28) ईसा की चर्चा शीघ्र ही गलीलिया प्रान्त के कोने-कोने में फैल गयी।
आज हम प्रभु येसु को सभागृह में देखते जहां लोग उनके वचनों को सुनकर और कार्यों को देखकर उनके अधिकार की प्रशंसा करते हैं। वह अधिकार के साथ उन्हें शिक्षा देते थे। अधिकार के साथ बोलने वाला व्यक्ति होने का क्या मतलब है? अधिकार के साथ बोलने वाला व्यक्ति होने का मतलब है कि हमारे बोलने और कार्य करने में कोई विरोधाभास नहीं है। हमारा जीवन हमारे विचारों एवं वाणी को व्यक्त करता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति बिना अधिकार के साथ बोलने वाला है उसका अर्थ है कि वह कहता कुछ और है और करता कुछ और है, अथवा जिसका व्यवहार और जीवन उसके विचारों और बातों से भिन्न है। आज के जमाने में लोग हमारे वचनों से अधिक हमारे कार्यों का अनुसरण करते हैं।
आज-कल लोग बहुत जागरूक हो गए हैं, वे एक सच्चे इंसान और झूठे इंसान में फ़र्क़ पहचान सकते हैं। हम ईश्वर की सन्तानें बनने के लिए बुलाए गए हैं, और यही हमारे जीवन एवं कर्मों में व्यक्त होना चाहिए। किसी ने ठीक ही कहा है, ‘अपना जीवन इस तरह से जीयो कि जो लोग तुम्हें जानते हैं लेकिन ईश्वर को नहीं जानते तो तुम्हारे कारण ईश्वर को पहचानने लगें क्योंकि वे तुम्हें पहचानते हैं।’ हमारे वचन और कर्म ही हमारे ईश्वर की संतान और प्रभु येसु के सच्चे शिष्य होने का प्रमाण बनें। आइए हम ईश्वर से कृपा माँगे कि हम सच्चे और ईमानदार व्यक्ति बनें। आमेन।
✍ -फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
We reflect about Jesus in the synagogue, and people admire him because they see authority in his words and deeds. He taught them with authority. What does it mean by being a person of authority? Being a person of authority means there is no contradiction between our words and deeds. Our life becomes the expression of our thoughts and words. Inversely, a person without authority would mean the one who preaches something else and does something else or whose life and behaviour is contrary to his thoughts and beliefs. People follow us for what we do more than what we say or preach.
People today are very conscious and aware and can easily make out the difference between a person with authenticity and a fake person. We are called to be the children of God and our life and deeds should express same thing. Someone has said, ‘live your life in such a way that those who know you but don't know God will come to know God, because they know you.’ Our words and deeds should express our true identity as children of God and true followers of Christ. Let us ask the Lord to give us strength and courage to be authentic persons. Amen.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)