अल्फोन्सा का जन्म केरल के कुडमालूर गाँव के मुट्टत्तुपाड़त्तु परिवार में 19 अगस्त 1910 को हुआ। उसकी माँ मरिया पुतुकरी ने गर्भ के आठवें महीने में अचानक अल्फोन्सा को जन्म दिया। एक रात को एक साँप गर्भवति मरिया के कमर में लिपट गया। उस से भयभीत हो कर मरिया ने अपनी बच्ची को जन्म दिया। परिवार की सबसे छोटी सन्तति, अल्फोन्सा का बपतिस्मा आठ दिन बाद हुआ। उनका नाम ’अन्नाक्कुट्टी’ रखा गया। तीन महीने बाद उनकी माँ का निधन हुआ और अन्नाक्कूट्टी अपने दादा-दादी के घर में बड़ी हुई। उन्हें उस घर पर अच्छी आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त हुई। फ़लस्वरूप पाँच साल की आयु में ही अन्नाक्कुट्टी अपने घर में अच्छी तरह पारिवारिक प्रार्थना की अगुवाई करती थी। सन 1917 में उन्होंने पहली बार बड़ी खुशी और भक्ति के साथ परम प्रसाद ग्रहण किया। बाद में सन 1943 में उन्होंने अपने आध्यात्मिक पिता को लिखा, “सात साल की आयु में ही मैं अपनी नहीं थी। मैं अपने ईश्वरीय दुल्हे के लिए समर्पित थी। आप यह बात अच्छी तरह जानते ही हैं।“
जैसे-जैसे वे बड़ी हो रही थी उनकी चाची उनकी देखरेख करने लगी। वह उनके साथ सख्ती का व्यवहार करती थी। अन्नाक्कुट्टी अपने पड़ोस की कार्मल की धर्मबहनों की जीवनशैली से आकर्षित हो रही थी जो उनकी चाची को अच्छा नही लग रहा था। इसलिए उसने अन्नाक्कुट्टी के विवाह की तैयारियाँ करने लगी। अन्नाक्कुट्टी बहुत सुन्दर थी और इस कारण विवाह के कई प्रस्ताव आने लगे। विवाह के प्रस्तावों को अन्नाक्कुट्टी टुकराती रही। जब उनके ऊपर दबाव बढ़ाया गया, तब उन्होंने आग में खूद कर अपनी सुन्दरता को बिगाड़ने की कोशिश की। 1927 में सातवीं कक्षा की पढ़ाइ करने हेतु अन्नाक्कुट्टी भरनंगानम नामक शहर गयी। अन्नाक्कुट्टी फ्रांसिस्की क्लारा धर्मसमाज की धर्मबहनों के संपर्क में आयी। सन 1928 में उन्होंने संत अल्फोन्स लिगोरी के आदर में ’अल्फोन्सा’ नाम स्वीकार कर उस धर्मसमाज में प्रवेश किया। सन 1930 से सन 1935 तक के समय में वह बहुत बीमार थी और उन्हें बहु दुख-तक्लीफ़ों को अनुभव करना पड़ा। उसकी बीमारी बहुत नाजुक बन गयी थी कि वे मरने-मरने को थी। अचानक धन्य चावरा कुरियाकोस एलियस की नौरोजी प्रार्थना के समय उन्हें चंगाई प्राप्त हुयी। 12 अगस्त 1936 को उन्होंने अपना अन्तिम वृत-प्रतिज्ञा की। उसके बाद भी सिस्टर अल्फोन्सा विभिन्न बीमारियों के शिकार बन गयी। लेकिन उन्होंने सब कुछ प्रभु येसु के प्रति प्यार से प्रेरित होकर खुशी से उन्हीं के लिए अर्पित किया। बीमारी के समय उन्होंने बडे साहस और धैर्य का नमूना प्रस्तुत किया। उनके चेहरे पर हमेशा एक निष्कलंक मुस्कुराहट विद्यमान थी। अल्फोन्सा ने अपनी साथियों तथा धर्मसमाज के प्रशिक्षणार्थियों को अपने जीवन के दुख-दर्द को खुशी से झेलने का सुझाव दिया। सुसमाचार की शिक्षा का सहारा ले कर उन्होंने कहा कि जब तक गेहूँ का दाना मिट्टी में गिर कर नहीं मरता, तब तक वह अकेला ही रहता, परन्तु यदि वह मर जाता है, तो बहुत फल देता है (योहन 12:24)। उन्होंने यह भी कहा कि परमप्रसाद की रोटी तैयार करने हेतु गेहूँ को पीसना पडता है; इसी प्रकार मिस्सा बलिदान के दाखरस को तैयार करने के लिए अंगूर को निचोडना पडता है। इस प्रकार हमारे दुख-दर्द के द्वारा ईश्वर हमें भी तैयार करते हैं।
28 जुलाई 1946 को उनका देहान्त हुआ। 8 फ़रवरी 1986 को संत पिता योहन पौलुस द्वितीय में उन्हें धन्य घोषित किया। 12 अक्टूबर 2008 संत पापा बेनेड़िक्ट सोलहवें ने उन्हें संत घोषित किया।