दिसंबर 01 - संत एडमण्ड कैंपियन

एडमण्ड कैंपियन का जन्म 25 जनवरी, 1540 को लंदन में हुआ था। उनका पालन-पोषण एक काथलिक के रूप में हुआ, और उनके पास इतनी शक्तिशाली और तेजतर्रार बुद्धि थी कि केवल 17 साल की उम्र में ही उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संत योहन कॉलेज में “जूनियर फेलो” (Junior Fellow) बना दिया गया था।

विश्वविद्यालय का दौरा करने पर, महारानी एलिजाबेथ प्रथम, एडमण्ड की प्रतिभा से इस कदर प्रभावित हुईं, जैसे कि उनके कुछ गणमान्य व्यक्ति भी हुए थे, कि उन्होंने उनसे जो कुछ भी वे चाहते थे उसे मांगने के लिए आग्रह किया। इतने सारे लोगों की प्रशंसा और सराहना ने उनके गरूर को पोषित किया और अंततः उन्हें अपने काथलिक विश्वास से दूर कर दिया। उन्होंने सर्वोच्चता की शपथ ली और रानी को कलीसिया के प्रमुख के रूप में स्वीकार किया। वह एक एंग्लिकन उपयाजक भी बन गया। हालाँकि, उनकी शानदार बुद्धि और उनकी अंतरात्मा ने उन्हें बहुत लंबे समय तक एंग्लिकनवाद के विचार के साथ सामंजस्य स्थापित करने की अनुमति नहीं दी। डबलिन में कुछ समय रहने के बाद, वे अपने काथलिक धर्म में वापस आ गये और इंग्लैंड लौट आये। इस दौरान, उनके बारे में बहुत अधिक काथलिक होने का संदेह था, और जब उन्होंने जल्द ही शहीद होने वाले व्यक्ति के मुकदमे को देखा तो वे हिल गए। इसने उन्हें इस विश्वास तक पहुँचाया कि उनकी बुलाहट इंग्लैंड में काथलिक विश्वासियों की सेवा करने की थी जिन्हें सताया जा रहा था। उन्होंने प्रोटेस्टेंट विश्वासीयों को परिवर्तित करने के आह्वान को भी महसूस किया।

वे नंगे पांव रोम के लिए रवाना हुए, और 1573 में, उन्होंने येसु समाज में प्रवेश किया। उन्हें 1578 में पुरोहिताभिषेक दिया गया और उन्होंने एक दिव्यदर्शन प्राप्त किया था जिसमें कुँवारी मरियम ने उनकी शहादत की भविष्यवाणी की थी। जब वे इंग्लैंड लौटे तो उन्होंने कई धर्मान्तरित लोगों को जीतते हुए तत्काल प्रभाव डाला।

17 जुलाई 1581 को, एक विश्वासपात्र ने उनके साथ विश्वासघात किया जो उनके ठिकाने के बारे में जानता था, और उन्हें कारागाह में डाल दिया गया। रानी ने उन्हें हर तरह के धन की पेशकश की, अगर वह संत पिता के प्रति अपनी निष्ठ को त्याग देंगे, लेकिन उन्होंने मना कर दिया।

लंदन की मिनार में कुछ समय बिताने के बाद, उन्हें फांसी देने से पहले घोडों द्वारा सड़क पर घसीटा गया था तथा उनके शरीर को चार हिस्सों में बाँटा गया था। इस तरह उन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी। 1 दिसंबर, 1581 को टायबर्न में उनकी शहादत ने काथलिक धर्म में धर्मांतरण की लहर को जन्म दिया। उन्हें 1970 में संत पिता पौलुस छठवें द्वारा संत घोषित किया गया था।


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