नोब्लाक के संत लियानार्ड फ़्रान्स के राजा के राज-दरबारी थी। वे राजा क्लोविस प्रथम के अभिन्न मित्र थे तथा उनके साथ ही उन्होंने सन् 496 को क्रिस्मस के पर्व पर ख्राीस्तीय विश्वास अपनाया था। उन्होंने राजा के साथ अपनी मित्रता के नाते निवेदन किया कि वे उन्हें व्यक्तिगत रूप से यह विशेषाधिकार प्रदान करे कि वे जिस किसी बंदी को योग्य समझे उन्हें मुक्त कर सके। इस विशेषाधिकार के तहत उन्होंने अनेक बंदियों को मुक्त किया।
जब राजा ने उन्हें बडे पद पर नियुक्त करना चाहा तो उन्होंने उसे विनम्रता के साथ नकार दिया तथा एक मठ में प्रवेश दिया। प्रचलित बातों से पता लगता है कि इसके बाद उन्होंने लिमोसिन के जंगल में जाकर एक तपस्वी का जीवन बिताया। यहॉ उनके अनेक शिष्य बन गये। उनकी मध्यस्थ प्रार्थनाओं के द्वारा फ़्रान्स की रानी ने सफलतापूर्वक एक पुत्र को जन्म दिया। इसके उपहार स्वरूप उन्हें नोब्लाक में भूमि दी गयी जहॉ पर उन्होंने प्रसिद्ध नोब्लाक मठ बनाया। इस मठ के पास के गांव का नाम उनके आदर में संत लियोनार्ड-डि-नोब्लाट पडा। लियोनार्डो की प्रसिद्धि मध्य युग में बहुत ही श्रद्धेय संत के रूप में फैली थी। उनकी मध्यस्थ प्रार्थनाओं से बंदियों, प्रसव में पडी महिलाओं तथा रोगग्रत पशुओं को चमत्कारिक रूप से मदद मिलती थी।
जो बंदी अपने बंदीगृहों से संत से प्रार्थना करते थे उनकी बेडियॉ उनकी आंखों के सामने ही टूट जाती थी। इनमें से कईयों ने अपनी टूटी हुयी बेडियों को लाकर संत लियोर्नाडो को सौंपी। लियोर्नाडो ने उन सभी मुक्त कैदियों को जंगल में ही रहकर भूमि तैयार करने को कहा ताकि वे भूमि में खेती-किसानी कर ईमानदारी के साथ अपना जीवन व्यापन कर सके। सन् 559 में संत लियोनार्डो की मृत्यु हुयी।
संत लियोनार्डो का जीवन हमें सिखाता है कि जिस प्रकार संत ने राजा के साथ अपने संबंधों का उपयोग बंदियों की रिहाई के लिये किया, उसी प्रकार हमें भी अपने साधनों तथा संबंधों का उपयोग सार्वजनिक कल्याण के लिये करना चाहिये। संत ने राजा के प्रस्तावित पद को अस्वीकार कर ईश्वर की साधना को अधिक महत्व दिया। क्या हम ईश्वर के लिये संसारिक लाभ का त्याग करते है?