फ्रांसिस बोर्गिया का जन्म 28 अक्टूबर, 1510 को गंडिया, वालेंसिया, स्पेन में ड्यूक ऑफ गंडिया के पुत्र के रूप में हुआ था, जो उनके पिता की ओर से, संत पिता अलेक्जेंडर छठवें, जो कुख्यात बोर्गिया संत पिता रहे उन से संबंधित रहे और उनकी मां की ओर से आरागॉन के राजा फर्डिनेंड के वे पर पोते थे। फ्रांसिस के पवित्र जीवन ने उनके पूर्वजों के पापों का प्रायश्चित किया।
फ्रांसिस की दादी अपने पति की मृत्यु के बाद स्वयं को अपनी बेटी के पुअर क्लेर्स के एक कॉन्वेंट में शामिल हुयी और उन्होंने बोर्गिया के दरबार में एक पवित्र प्रभाव रखा, जिनके लिए फ्रांसिस ऋणी हैं। वास्तव में यही दो महिलाओं की वजह से पवित्रता बोर्गिया परिवार के निंदनीय वंश में प्रवेश कर गई।
फ्रांसिस एक धर्मपरायण युवक बन गया, जिनके पास कई प्राकृतिक वरदान थे और पवित्र रोमी सम्राट चार्ल्स पाँचवें के दरबार में वे सबसे पसंदीदा थे। यह बताया गया है कि एक दिन फ्रांसिस अपने अनुरक्षण के साथ अल्काला से गुजरे, और एक गरीब आदमी के साथ एक भावनात्मक नजर का आदान-प्रदान किया जिन्हें न्यायिक जाँच के बाद जेल ले जाया जा रहा था। यह व्यक्ति लोयोला के इग्नासियुस थे, और इस समय फ्रांसिस को इस बात का ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि यह व्यक्ति उनके भाग्य में क्या महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगें।
1539 में फ्रांसिस को कैटेलोनिया का राजप्रतिनिधि नियुक्त किया गया था, और चार साल बाद, उनके पिता की मृत्यु पर, ड्यूक ऑफ गंडिया। उन्होंने वहां एक विश्वविद्यालय का निर्माण किया, धर्मशास्त्र में डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की, और येसुसमाजीयों को अपने क्षेत्र में आमंत्रित किया।
सुंदर महारानी इसाबेला की अचानक मृत्यु (1 मई, 1539) और उनके शरीर को ग्रेनाडा ले जाते समय उनके विकृत चेहरे की दृष्टि ने उन्हें दुनिया छोड़ने और केवल राजाओं के राजा की सेवा करने का संकल्प दिलाया।
फिर 1546 में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई, और फ्रांसिस ने 1548 में येसुसमाज में प्रवेश किया, लेकिन संत पिता ने उन्हें दुनिया में रहने का आदेश दिया जब तक कि उन्होंने अपने दस बच्चों और अपने डची के लिए अपने दायित्वों को पूरा नहीं किया।
दो साल बाद उन्होंने गंडिया छोड़ दिया, कभी वापस नहीं लौटे, और रोम में येसुसमाज में शामिल हो गए। उन्होंने तुरंत भव्य परियोजनाओं की शुरुआत की - उन्होंने इग्नासियुस को रोमन कॉलेज स्थापित करने हेतु मनवा लिया, और एक साल बाद वे स्पेन के लिए रवाना हो गए, जहां उनके उपदेश और उदाहरण ने देश में धार्मिक उत्साह का नवीनीकरण किया, दूर-दूर से तीर्थयात्रियों को उनके प्रवचन सुनने के लिए आकर्षित किया।
1556 में उन्हें सोसाइटी के सभी मिशनों का प्रभारी बनाया गया और उनके ऊर्जावान कार्य ने उन में बदलाव लाया। उन्होंने पेरू, न्यू स्पेन और ब्राजील में भी मिशन शुरू किया।
उन्हें 2 जुलाई 1565 को येसुसमाज में जनरल के रूप में चुना गया था, और हालांकि अपने अंतिम वर्षों में उनका स्वास्थ्य खराब रहा, फिर भी उन्होंने शासन को क्रियान्वित किया और बड़ी ऊर्जा के साथ सोसायटी की परियोजनाओं की शुरुआत की। उन्होंने येसुसमाज में इतने सुधार किए कि उन्हें कुछ मायनों में इसका दूसरा संस्थापक माना जाने लगा। फ्रांसिस पूर्ण अर्थों में चिंतन और कार्य करने वाले व्यक्ति थे, और उन्हें अपनी मौन प्रार्थना से स्पष्ट रूप से बहुत ताकत मिली।
विनम्रता के उनके उदाहरण ने सम्राट चार्ल्स पाँचवें को प्रभावित किया कि उन्होंने सिंहासन छोड़ने पर विचार किया। श्रम और गंभीर वैराग्य के लिए समर्पित, फ्रांसिस ने खुद को इतने कम सम्मान में रखा कि उन्होंने खुद को ‘‘गरीब पापी‘‘ कहा।
एक प्रेरितिक यात्रा से स्पेन लौटने के दो दिन बाद 30 सितंबर, 1572 को रोम में उनकी मृत्यु हो गई। संत फ्रांसिस बोर्गिया काथलिक सुधार के महान संतों में से एक हैं, और उन्हें 1670 में संत पिता क्लेमेंट दसवें द्वारा संत घोषित किया गया।