लिस्यु की संत तेरेसा

अक्टूबर 1

तेरेसा का जन्म 2 जनवरी 1873 को फ़्रांस के अलेन्सोन नामक शहर में हुआ था। लूई मार्टन और सेली.मारी ग्वेरी उनके माता.पिता थे। पाँच बहनें थी। तेरेसा सब से छोटी थी। दोनों माता.पिता धर्मसमाज में शामिल होने की इच्छा रखते थेए परन्तु यह संभव नहीं हो सकाए इसलिए दोनों की तीव्र इच्छा थी कम से कम उनकी बेटियाँ धर्मसमाजी जीवन अपना सके। जब तेरेसा 4 साल की थीए तब सेली.मारी का देहान्त हुआ। सन 1877 में तेरेसा का परिवार लिस्यु शहर में आकर रहने लगा।

सन 1883 में तेरेसा को विजय की माता मरियम की मध्यस्थता से चमत्कारिक ढ़ंग से किसी बीमारी से चंगाई मिली। सन 1884 में लिस्यु की बेनेड़िक्टीनी धर्मबहनों के द्वारा दी गयी शिक्षा प्राप्त करने के बाद तेरेसा को प्रभु येसु के साथ एक होने का एक अनोखा अनुभव प्राप्त हुआ। उसी साल उन्होंने पहली बार परम प्रसाद ग्रहण किया तथा कुछ ही दिन बाद दॄढ़ीकरण भी। वे अपनी बहनों पौलीन और मारी के समान मननशील धर्मबहनों के मठ में भर्ती होना चाहती थी, अपनी कम उम्र के कारण उसे अनुमति नहीं मिल पा रही थी। सन 1888 में रोम में जब उनकी मुलाकात संत पापा लियो तेरहवें से हुई, तो उन्होंने संत पापा से मठ में प्रवेश करने की अनुमति माँगी। इस पर सन्त पापा ने अपने अधिकारियों के मार्गदर्शन पर निर्भर रहने को कहा। तत्पश्चात उनके धर्माध्यक्ष ने उन्हें अनुमति दी और वह सन 1888 में लिस्यु के कार्मल मठ मे शामिल हो गई।

सिस्टर तेरेसा एक ऐसी सिस्टर थी जिस में लोगों ने एक साधारण सिस्टर को ही देखा। उन्होंने कोई भी महान कार्य नहीं कीए परन्तु उन्होंने बडी निष्ठा से अपने कर्तव्यों को निभाया।

वे बालक येसु के विशेष भक्त थी। पिता की बीमारी और उनकी मृत्यु उनके लिए कठोर आध्यात्मिक परीक्षा थी। उनमें अपने बीमार पिताजी की सेवा करने की बड़ी इच्छा थी। परन्तु उनके मठ का अनुशासन उसके लिए उन्हें अनुमति नही देता था। यह संघर्ष उनके लिए एक परीक्षा बन गयी। 1894 में उनके पिताजी का निधन हुआ। सन 1895 में तेरेसा रक्तस्राव तथा क्षयरोग के शिकार बन गयी।

मिशनरी कार्यों में उनकी बहुत बडी रुचि थी। वे हमेशा मिशनरियों के लिए प्रार्थना करती रहती थी। उनकी तीव्र इच्छा थी कि हानोय या वीयटनाम में मिशनरी बन कर सेवा करें, परन्तु बीमारी के कारण कुछ भी संभव नहीं था।

परेशानियों के बीच मौन साधना गहरी आध्यात्मिकता का प्रतीक है। जब तेरेसा 10 साल की थीए एक दिन उनके पिताजी उनकी बहन सेलिन को पेंटिंग सिखा रहे थे और उन्होंने तेरेसा से पूछाए श्क्या तुम भी पेंटिंग सीखना चाहती होश्। उसके ’हाँ’ कहने के पहले ही उनकी दूसरी बहन ने कहा कि तेरेसा में सेलिन के समान प्रतिभा नहीं है। इस पर तेरेसा ने मौन साधा। बाद में उन्होंने अपने आत्मकथा में इस घटना के ज़िक्र करते हुए लिखा कि मुझे यह मालूम नहीं कि उस समय मुझे इतना धैर्य कैसे प्राप्त हुआ।

मठ में एक दिन तेरेसा अपने कपड़े धो रही थी। उसके सामने खड़ी एक दूसरी सिस्टर भी कपड़ा धो रही थी। उस सिस्टर की लापरवाही के कारण गन्दे पानी सिस्टर तेरेसा के चेहरे पर बार-बार गिरता गया। इस पर सिस्टर तेरेसा ने अपने चेहरे से वह गन्दा पानी भी इसलिए नहीं पोछा कि दूसरे सिस्टर को बुरा न लगे।

तेरेसा ने अपनी आत्मकथा में लिखा : “उत्तेजित होने तथा तनाव पैदा करने वाली परिस्थितियों में दुखी होने के बचाय मैंने मुस्कुराने की कोशिश की। शुरू-शुरू में यह कठिन था, परन्तु धीरे-धीरे यह मेरा स्वभाव ही बन गया।“

ये सब छोटी-छोटी बातें हैं। लेकिने छोटी-छोटी साधारण बातों पर भी असाधारण ढ़ंग से ध्यान देते हुए तेरेसा संत बन सकी। सन्त तेरेसा इस तरीके को “लघु मार्ग” कहती हैं। सन्त तेरेसा लिखती है, “महात्माओं के समान बचपन से ही बडे और महान कार्य करते हुए नहीं, बल्कि स्वयं की इच्छा को टुकराते हुए, अपने मुँह से अविचारी शब्दों को रोकते हुए, दूसरों को छोटी-छोटी मदद पहुँचाकर और ऐसे हज़ारों छोटे-छोटे कार्य करते हुए मैं ने अपनी इन्द्रियों को वश में किया है।“

वह नवदीक्षितों से कहती थी कि स्वर्गदूतों के प्रति आदर के कारण हमें हमेशा मर्यादा के साथ व्यवहार करना चाहिए। उनका कहना था, “मैं गुप्त बलिदान को किसी आनन्दातिरेक से भी अधिक प्यारा मानती हूँ। प्रेम से प्रेरित होकर एक पिन को उठाने का कार्य एक आत्मा को मनपरिवर्तन करा सकता है।“

सन्त तेरेसा दुख-दर्द को न केवल खुशी से झेलती थी, बल्कि उसका स्वागत भी करती थी। संत तेरेसा के अनुसार हमारी असफ़लता पर हताश होना घमण्ड को ही दर्शाता है। असफ़लता के सामने किसी भी व्यक्ति को हताश होने के बचाय यह सोचना चाहिए कि मैं अपने बल-बूते पर कुछ नहीं कर सकता, इसलिए मुझे विनम्र बन कर सर्वशक्तिमान ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए। सन्त तेरेसा के अनुसार घमण्ड को हराने की हमारी कोशिश में हमारी असफ़ता हमें हताश बनाती है, यह हताशा हमें और भी अधिक घमण्ड करने केलिए प्रेरित करती है। हम फ़िर घमण्ड को हराने की कोशिस करते हैं। इस सरकश परिपथ (vicious circle) से बचना कठिन है। संत तेरेसा कहती हैं कि प्रभु येसु के प्यार के एहसास से ही उन्होंने इस सरकश परिपथ से छुटकारा पाया।

तेरेसा मठ में क्यों आयीघ? आत्माओं को बचाने तथा पुरोहितों के लिए प्रार्थना करने हेतु। उन्होंने अपने मठ में क्या करती थी? कड़ी मेहनत और प्रार्थना। उनका प्रेरितिक कार्य क्या था? दुख.दर्द सहना।

अपनी मृत्यु के ज़िक्र करते हुए उन्होंने अपने आध्यात्मिक पिता को लिखा, “मेरी मृत्यु नहीं हो रही है, बल्कि मैं जीवन में प्रवेश कर रही हूँ”। 24 साल की आयु में उनके अंतिम शब्द थे – “मेरे ईश्वर... मैं तुझे प्यार करती हूँ”। अक्टूबर 30, सन 1897 को लिस्यु के मठ में तेरेसा की मृत्यु हुई। उन्होंने अपने जीवन में कोई भी बडा कार्य नहीं किया था। लेकिन उनकी मृत्यु के एक साल के अन्तर ही उनकी ख्याति दुनिया भर में फ़ैल गयी और एक ही साल में उनकी आत्मकथा को “एक आत्मा की कहानी” के नाम से प्रकाशित किया गया और कई भाषाओं में उसका अनुवाद भी हुआ। मृत्यु के 26 साल के अन्तर ही 17 मई 1925 को संत पापा लूई ग्यारहवें ने उन्हें संत घोषित किया। 14 दिसंबर 1927 को संत फ्रांसिस ज़ेवियर के साथ संत तेरेसा को भी उन्हीं संत पापा ने मिशन की संरक्षिका घोषित किया। 19 अक्टूबर 1997 को संत पिता योहन पौलुस द्वितीय ने उन्हें धर्माचार्य घोषित किया। वे अपनी मृत्यु के पहले कहती थीं कि मैं स्वर्ग से सब मनुष्यों के ऊपर गुलाबों की वर्षा करूँगी। हे संत तेरेसा हमारे लिए प्रार्थना कर!


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!