योहन ख्रीसोस्तम एक लातिनी पिता और एक युनानी माता के पुत्र थे; उनकी माँ, एंथुसा, उनके जन्म के तुरंत बाद, बीस वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई थी। पुनर्विवाह के सभी विचारों को दर किनार करते हुए, एंथुसा ने अपना सारा ध्यान अपने बेटे पर दियाः उन्होंने उन्हें उस समय की सर्वश्रेष्ठ शास्त्रीय शिक्षा दी, और जब वह अठारह वर्ष का था, तब उन्हें एक दीक्षाभिलाषी के रूप में नामांकित किया। वे अंथाकिया के प्राधिधर्माध्यक्ष मेलेतियस के प्रभाव में आए, जिसने उन्हें डियोडोर के मठवासी स्कूल में भेजा, फिर उन्हें बपतिस्मा दिया और उन्हें वेदी-वाचकों में नियुक्त किया।
इस समय, संत योहन ख्रीसोस्तम ने अपने भविष्य को अपने हाथों में लेने का फैसला किया और एक मठवासी-भक्त बन गया। वे एक गुफा में रहकर, शास्त्रों का अध्ययन करने लगे और खुद को हेसिचियस नामक एक बुढ़े निर्जनवासी के अनुशासन में रखा था। हालाँकि, इस कठोर शासन के तहत उनका स्वास्थ्य खराब हो गया और वे अंताखिया लौट आए। उन्हें पुरोहिताभिषेक दिया गया, और एक प्रवाचक के रूप में उन्होंने अपने उल्लेखनीय आजीविका की शुरुआत की।
अगले बारह वर्षों के दौरान, उन्होंने अपने ज्वलंत उपदेशों के साथ अंताखिया को उत्तेजित किया, जो ज्ञान और एक आश्चर्यजनक वाक्पटुता से भरा था। यह इस अवधि के दौरान ही था कि उन्हें ख्रीसोस्तम, या सुनहरा मुख उपनाम मिला, क्योंकि उनके शब्द शुद्ध सोने के लगते थे। 397 में, जब कॉन्स्टेंटिनोपल की पर्म धर्मपीठ खाली हो गई, सम्राट अर्केडियुस ने योहन को प्राधिधर्माध्यक्ष नियुक्त किया, और चूंकि यह डर था कि वे सम्मान से इनकार कर देंगे, उन्हें कॉन्स्टेंटिनोपल का लालच दिया गया और 398 में शहर के धर्माध्यक्ष प्रतिष्ठित किया गया।
योहन ने खुद को राजनीतिक साजिश, धोखाधड़ी, अपव्यय और नग्न महत्वाकांक्षाओं के एक घोंसले में पाया। उन्होंने खर्चों पर अंकुश लगाया, गरीबों को भरपूर दान दिया, अस्पतालों का निर्माण किया, याजक वर्ग में सुधार किया और मठवासी अनुशासन को बहाल किया। लेकिन उनके सुधार के कार्यक्रमों ने उन्हें, विशेष रूप से महारानी यूडोक्सिया और अलेक्जेंड्रिया के प्राधिधर्माध्यक्ष थियोफिलस का दुश्मन बना दिया। शहर में उथल-पुथल मच गयी, उनकी जान को खतरा बना रहा और फिर योहन को वर्ष 404 में सम्राट द्वारा निर्वासित किया गया। संत पिता के दूतों को कैद कर लिया गया था। योहन जिनका संत पिता ने बचाव किया था और उनका पद उन्हें बहाल करने का आदेश दिया गया था - उन्हें आगे निर्वासन में भेजा गया था, जो कॉन्स्टेंटिनोपल से छह सौ मील दूर काला सागर के पार था। थके-हारे और बीमार, वे पोंटूस के कोमाना में अपनी कठिनाइयों के कारण मर गये। उनके अंतिम शब्द थे, ‘‘सभी बातों के लिए ईश्वर की महिमा।‘‘