29 जून को कलीसिया महान संत पेत्रुस और संत पौलुस का पर्व मनाती है। वर्ष 258 की शुरुआत से ही, एक ही दिन में संत पेत्रुस और पौलुस दोनों के समारोहों को मनाने की लंबी परंपरा का प्रमाण मिला है। एक साथ, ये दोनों संत रोम के केंद्रीय शासी निकाय के संस्थापक हैं, जो इन्होनें अपने उपदेश, प्रेरिताई और शहादत के माध्यम से स्थापित किया।
सिमोन और उनके भाई अन्द्रयस मछुआरे थे। अन्द्रयस ने ही सिमोन का प्रभु येसु से परिचय करवाया था। येसु ने उन्हें केफस (लातीनी में पेत्रुस) नाम दिया, जिसका अर्थ है ‘चट्टान‘, क्योंकि उन्हें वह चट्टान बनना था जिस पर मसीह अपनी कलीसिया का निर्माण करेंगे।
पेत्रुस प्रभु का एक साहसी अनुयायी थे। वे वह पहले व्यक्ति थे जिन्होने यह पहचाना कि येसु ‘‘मसीह, जीवित ईश्वर के पुत्र‘‘ हैं, और उन्होंने उत्सुकता से मृत्यु तक अपनी निष्ठा की प्रतिज्ञा की थी। अपने साहस में, उन्होंने कई गलतियाँ भी कीं, जैसे कि मसीह के साथ पानी पर चलते समय विश्वास खोना और उनके प्राणपीडा की रात में प्रभु को अस्वीकार करना।
फिर भी अपनी मानवीय कमजोरियों के बावजूद, पेत्रुस को ईश्वर के झुंड की रखवाली करने के लिए चुना गया था। प्रेरित-चरित कलीसिया के प्रमुख के रूप में उनकी भूमिका को दर्शाते हैं, जब ख्रीस्त के पुनरुत्थान और स्वर्गारोहण के बाद पेत्रुस ने पहले संत पिता के रूप में प्रेरितों का नेतृत्व किया और सुनिश्चित किया कि शिष्यों ने सच्चा विश्वास बनाए रखा।
संत पेत्रुस ने अपने अंतिम वर्ष रोम में बिताए, उत्पीड़न के दौरान कलीसिया का नेतृत्व किया और अंततः वर्ष 64 में शहीद किए गए। उनके अनुरोध पर उन्हें सूली पर उल्टा चढ़ा दिया गया था, क्योंकि उन्होंने अनुरोध किया था कि वे अपने प्रभु की तरह मरने के योग्य नहीं थे। उन्हें वतिकान पहाड़ी पर दफनाया गया था, और उनकी कब्र के ऊपर संत पेत्रुस की बेसिलिका बनाई गई है।
संत पौलुस गैर यहुदियों के प्रेरित थे। उनके कई पत्र नए नियम के लेखन में शामिल हैं, और उनके माध्यम से हम उनके जीवन और प्रारंभिक कलीसिया के विश्वास के बारे में बहुत कुछ सीखते हैं। पौलुस नाम प्राप्त करने से पहले, वे साऊल थे, एक यहूदी फरीसी जिसने यरूसालेम में ईसाईयों को पुरे जोश से सताया। पवित्र शास्त्र में लिखा है कि साऊल संत स्तेफनुस की शहादत के समय वहाँ उपस्थित थे।
साऊल के येसु को स्वीकार करने की घटना को प्रेरित-चरित में हम तीन बार पढ़ते हैं। यह घटना उस समय हुई जब वे ईसाई समुदाय को सताने के लिए दमिश्क जा रहे थे। जब साऊल सड़क पर यात्रा कर रहे थे, तो वे अचानक स्वर्ग से एक महान प्रकाश से घिर गये। वे अंधे हो गये और अपने ज़मीन पर गिर गया। तब उन्होने ने ये शब्द सुने, ‘‘साऊल! साऊल! तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो?‘‘ उन्होंने कहा, ‘‘प्रभु! आप कौन हैं?‘‘ उत्तर मिला, ‘‘मैं ईसा हूँ, जिस पर तुम अत्याचार करते हो। उठो और शहर जाओ। तुम्हें जो करना है, वह तुम्हें बताया जायेगा।”
साऊल ने दमिश्क की यात्रा को जारी रखा, जहाँ उन्होंने बपतिस्मा लिया और उसकी दृष्टि बहाल हो गई। उन्होंने पौलुस नाम लिया और अपना शेष जीवन भूमध्यसागरीय संसार के अन्यजातियों के बीच अथक रूप से सुसमाचार का प्रचार करने में बिताया। अपनी मिशनरी यात्राओं के उपरांत पौलुस को कैद कर लिया गया और रोम ले जाया गया, जहां सन 67 में उनका सिर कलम कर दिया गया था। उन्हें रोम में दीवारों के बाहर संत पौलुस के बेसिलिका में दफनाया गया है।
वर्ष 395 में एक उपदेश में, हिप्पो के संत अगस्तिन ने संत पेत्रुस और पौलुस के बारे में कहाः “दोनों प्रेरितों का एक ही दिन में पर्व हैं, क्योंकि ये दोनों एक ही थे, और भले ही वे अलग-अलग समय में पीड़ित थे, वे एक जैसे थे। पेत्रुस पहले गए, और पौलुस ने अनुकरण किया। और इसलिए हम उस दिन को मनाते हैं जिसे प्रेरितों के रक्त से हमारे लिए पवित्र बनाया गया है। आइए हम उनके विश्वास, उनके जीवन, उनके परिश्रम, उनके कष्टों, उनके उपदेशों और उनके विश्वास की घोषणा को गले लगाये’’