जब वे आठ वर्ष का थे तब से उनकी मृत्यु के दिन तक, योहन ने अपने दिल की हर आवेग का पालन किया। उनके लिए चुनौती थी कि वे पवित्र आत्मा की प्रेरणाओं का तुरन्त पालन करें, न कि स्वयं के मानवीय प्रलोभनों का। लेकिन कई लोगों के विपरीत, जो आवेगपूर्ण तरीके से कार्य करते हैं, जब योहन ने एक निर्णय लिया, चाहे कितनी भी जल्दी हो, वे उस पर टिके रहे, चाहे कितनी भी कठिनाई क्यों न हो।
योहन को कभी उत्कृष्ट शिक्षा का लाभ नहीं मिला। लेकिन उनके दिमाग में जो कमी थी, वह उनके दिल ने पूरी कर दी। उन्होंने अपने पुर्तगाली घर को बचपन में ही छोड़ दिया और पड़ोसी स्पेन चले गए। वहाँ से उन्होंने एक किसान, चरवाहा और फिर एक सैनिक के रूप में एक भ्रमणशील जीवन व्यतीत किया। उन्होंने राजाओं और राजकुमारों की सेवा में कई युध्दों में लड़ते हुए यूरोप की लंबाई और चौड़ाई की यात्रा की।
कई साल बाद वे घर वापस आ गये और यह देखने गये कि क्या उनके माता-पिता अभी भी जीवित हैं। लेकिन वे बहुत कम उम्र में तथा इतने लंबे समय से चले गये थे कि उन्हें उनके नाम भी याद नहीं थे। एक चाचा ने उन्हें बताया कि वे मर चुके हैं। फिर उन्होंने अफ्रीका जाने का निर्णय लिया, लेकिन उन्हें स्पेन वापस जाना पडा। तब वे पुस्तकें बेचने लगे। एक दिन उन्हें आविला के सन्त योहन के प्रवचन सुनने का मौका मिला। वे पश्चात्ताप के विषय पर प्रवचन दे रहे थे। उस प्रवचन का योहन पर बहुत बडा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने सभी पापों के लिए पश्चात्ताप किया तथा कठिन प्रायश्चित्त के कार्य किये। योहन ने गरीबों तथा रोगियों की सेवा में अपने जीवन को समर्पित किया।
योहन खुद बीमार थे जब उन्होंने सुना कि एक बाढ़ शहर के पास कीमती लकड़ी ला रही है। वे प्रचंड नदी से लकड़ी इकट्ठा करने के लिए बिस्तर से कूद गये। फिर जब उनका एक साथी नदी में गिर गया, तो योहन अपनी बीमारी या सुरक्षा के बारे में सोचे बिना उसके पीछे कूद गये। वे लड़के को बचाने में असफल रहे और उन्हें निमोनिया हो गया। 8 मार्च को, उनके पचपनवें जन्मदिन पर, उसी आवेगपूर्ण प्रेम के कारण, जिसने उनके पूरे जीवन का मार्गदर्शन किया था, उनकी मृत्यु हो गई।