रानी मरिया का जन्म 29 जनवरी 1954 को वट्टत्तिल परिवार के पैली और एलीस्वा से हुआ। वह एक कृषक परिवार था। उनका बपतिस्मा पुल्लुवज़ी के संत थॉमस गिरजा घर में 5 फरवरी 1954 को हुआ और उनका नाम मरियम रखा गया। उनके मामा श्री वर्की और दादी मरियाम्मा उनके धर्म माता-पिता थे। उनके माता पिता ने उन्हें और अन्य छ: बच्चों को ख्रीस्तीय विश्वास तथा परोपकार की शिक्षा दी। स्टीफन और वर्गीस उनके भाई थे तथा आनी, सेलिन और लूसी उनकी बहनें। इनमें से सेलीन ने बाद में रानी मरिया के आदर्श जीवन से प्रभावित होकर सेल्मी पॉल नाम स्वीकार कर फ्रांसिस्कन क्लारिस्ट धर्मसमाज में प्रवेश किया।
मेरीकुन्जु (छोटी मेरी, जैसे लोग उन्हें प्यार से बुलाते थे) ने 30 अप्रैल 1966 को पहला परम प्रसाद तथा दृढ़ीकरण स्वीकार किया। बचपन से ही उनके माता-पिता और दादा-दादी ने उन्हें प्रार्थना के महत्व के बारे में प्रशिक्षण दिया। छोटी उम्र में ही वे दैनिक मिस्सा बलिदान तथा लोकप्रिय भक्ति-कार्यों में नियमित रीति से भाग लेती थी। उन्होंने धर्मशिक्षा की कक्षाओं में दिलचस्पी से भाग लिया और जो शिक्षा उन्हें प्राप्त हुयी उसे व्यवहार में लाने की हर संभव कोशिश की।
उनके भाई स्टीफन के शब्दों में, “वे बहुत कम बात करती थी और वे बहुत ही साधे कपडों से खुश रहती थी। उन्हें किसी भी प्रकार का आभूषण पहनने की इच्छा नहीं थी। उन्होंने कभी भी ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे दूसरों को चोट पहुँचे। ऐसा कुछ हो जाने पर वे अफसोस जताती थीं।” उनकी माताजी का कहना है – “वह दूसरे बच्चों से बिलकुल भिन्न थी और बच्चों में सब से आज्ञाकारी थी”। उनके माता-पिता उन पर गर्व करते थे।
उनकी शिक्षा ’कलरी’ (केरल का परम्परागत प्राथमिक शिक्षा-शाला) में शुरू हुआ जहाँ उन्होंने दो साल तक पढ़ाई की। तत्पश्चत् वे पुल्लुवज़ी की सरकारी प्राथमिक शाला में भेजी गयीं। स्कुल में उनका नाम पी.वी.मेरी रखा गया। प्राथमिक शिक्षा के बाद की पढ़ाई पुल्लुवज़ि के जयकेरल स्कूल में हुयी। पढ़ाई के बीच उन्होंने पिताजी को खेत में और माताजी को घर में मदद करने के लिए समय निकाला। घर के नौकरों प्रति उनका व्यवहार बहुत ही संवेदनशील रहा और उनके साथ बात करने के लिए वे समय निकालती थी।
उच्चतर माध्यमिक शिक्षा में अच्छे परिणाम लाने के उद्देश्य से उनके माता-पिता ने उन्हें त्रिप्पूनित्तुरा के सेंट जोसेफ स्कूल में भेजा। वहाँ छात्रावास चलाने वाली धर्मबहनों के मार्गदर्शन में उनको आध्यात्मिक तथा बौद्धिक विकास का सुअवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने सफलता के साथ अपनी पढ़ाई पूरी की।
केरल दक्षिण भारत का एक छोटा राज्य जिसकी विस्तृति 38,863 वर्ग किलोमीटर है। उसकी एक तरफ़ अरब सागर है और दूसरी तरफ़ ऊँची पहाडी श्रंखला है। प्राकृतिक सुन्दरता से आकर्षक होने तथा पुरानी संस्कृति के कारण लोग केरल को “ईश्वर का अपना देश” कहते हैं। केरल साक्षरता में भारत में प्रथम स्थान पर है।
परम्परा के अनुसार येसु के बारह प्रेरितों में से एक थॉमस सन 52 में केरल आये और उन्होंने केरल की कलीसिया की स्थापना की। केरल में तीन काथलिक कलीसियाएँ हैं –सीरो मलबार, सीरो मलंकरा और लातीनी। रानी मरिया का परिवार सीरो मलबार कलीसिया के सदस्य हैं।
पुल्लुवज़ि केरल का एक छोटा और शालीन ग्राम है जहाँ आध्यात्मिकता, प्राकृतिक सुन्दरता तथा सांस्कृतिक प्रताप एक साथ मिलते हैं। आध्यात्मिकता में अग्रसर यह गाँव आज अपनी इस बेटी पर गर्व करता है। रानी मरिया की याद को बनाये रखने हेतु पुल्लुवज़ि के पल्लिवासियों ने वहाँ पर रानी मरिया के नाम से एक संग्रहालय आरंभ किया है। वहाँ का गिरजा घर उस इलाके के सभी लोगों के सर्वांगीण विकास का केंन्द्र है।
अपनी स्कूली शिक्षा के अंतिम वर्ष में पी.वी. मेरी को समर्पित जीवन के लिए प्रभु येसु की बुलाहट महसूस हुयी। उन्होंने इस विषय में अपनी चचेरी बहन सिस्टर सोनी मरिया एफ.सी.सी. से बात की जिनको भी उस समय उसी प्रकार की बुलाहट महसूस हो रही थी। उसी इलाके में स्थित एफ.सी.सी. कॉन्वेंट की धर्मबहनों के संपर्क में आकर उन्होंने फ्रांसिस्कन क्लारिस्ट धर्मसमाज में प्रवेश करने का निर्णय लिया। मेरी को इस बात की चिंता थी कि उनके परिवार के सदस्यों की प्रतिक्रिया किस प्रकार की होगी। हिम्मत बटोर कर एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा उनके सामने प्रकट की तो उनके भाइ-बहनों ने उसका विरोध किया और उन्होंने पिताजी से इस के लिए इजादत नहीं देने का अनुरोध किया। लेकिन उनके पिताजी ने कहा, “अगर वह इसकी इच्छुक है, तो हम क्या कर सकते हैं? अगर ईश्वर की इच्छा यही है तो हम उसके खिलाफ कैसे हो सकते हैं?” इस पर उनकी दादी ने कहा, “आप लोग मेरीकुंज के धर्मसंघ में शामिल होने का विरोध क्यों कर रहे हैं? कितने माता-पिता अपने बच्चों को पुरोहित या धर्मबहन बनते देखना चाहते हैं? लेकिन उन सब को वह सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। प्रभु अपनी इच्छा से कुछ लोगों को चुनते हैं।“ दादी माँ की प्रज्ञा के सामने सब चुप हो गये।
3 जुलाई 1972 को मेरी और उनकी चचेरी बहन किडंगूर के फ्रांसिस्कन क्लारिस्ट कॉन्वेंट में अपना प्रार्थी-प्रशिक्षण (Aspirancy) शुरू किया। प्रशिक्षण के विभिन्न चरणों को पार कर – प्रार्थी-प्रशिक्षण (3.7.1972 से 30.10.1972 तक), अभ्यर्थी प्रशिक्षण (Postulancy 1.11.1972 से 29.4.1973 तक) तथा नवदीक्षा प्रशिक्षण (Novitiate 30.4.1973 से 30.4.1974 तक) – 20 साल की उम्र में 1 मई 1974 को मेरी ने अपना पहला धर्म संघीय ब्रत धारण किया और ’रानी मरिया’ नाम अपनाया।
प्रार्थी प्रशिक्षण तथा अभ्यर्थि प्रशिक्षण के दौरान उन्हें मार्गदर्शन देने वाली सिस्टर ग्लाडिस का कहना है – “उसके चेहरे पर हमेशा मुसकान थी और वह एक प्रतिभाशाली लडकी थी। वह सब कुछ पूर्णता के साथ करती थी और कभी कुछ शिकायत नहीं करती थी। उसे कभी सुधारने का मौका ही नहीं था। सत्य और न्याय के पक्ष में वह हमेशा खुल कर बात करती थी।” सिस्टर अल्ज़े मरिया ने, जिन्होंने रानी मरिया के साथ नवदीक्षा प्रशिक्षण प्राप्त किया था कहती हैं, “प्रशिक्षण के समय हम विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते थे। हम सब रानी मरिया को अपने दल में पाना चाहते थे। हम, गोशाला, शैचालय तथा घर साफ करते थे। इन दीन कार्यों में रानी मरिया हमेशा आगे रहती थी और वे सबसे पहले इन कार्यों को करती थीं। वे सूक्ति-प्रार्थनाओं (ejaculatory prayers) को जप कर हर घंटे को पवित्र करती थी।“ येसु का नाम लेने का इस आदत को सिस्टर रानी मरिया ने अपने जीवन के आखिरी क्षण तक बनाये रखा। अपनी अंतिम प्राण पीडा के समय भी वे ’येसु, येसु’ कह रही थी।
नवदीक्षा प्रशिक्षण की अधिकारी सिस्टर इन्फंट मेरी सिस्टर रानी मरिया की जीवनी में लिखती हैं, “वह प्रार्थना, पढ़ाई, नियमों के पालन, और जिम्मेदारियों में – संक्षेप में सब कुछ में - नेक और आदर्शवति थी। वह किसी से या किसी के कारण नाराज नहीं होती थी। जब दूसरों का मूल्यांकन करना पडता था, तब पक्षपात रहित रीती से सच्चाई का साक्ष्य देती थी, यह कार्य वह बारिकी से करती थी। वह हमेशा ईश्वर की इच्छा पर ध्यान देती थी। प्रोविन्स के उत्तर भारत की मिशन सलाहकार की जिम्मेदारी निभाते हुए जब सिस्टर इन्फंट मेरी मिशन प्रदेशों का दौरा करने के बाद अपना अनुभव नव दीक्षार्थियों के साथ बाँटती थी और उत्तर प्रदेश के मिशन प्रदोशों में मेहनत करने की ज़रूरत पर जोर देती थी, तब मेरी सब कुछ ध्यान से सुनती थी। इस प्रकार एक मिशनरी बुलाहट का बीज मेरी के हृदय में बोया गया। मिशनरियों के अनुभवों को सुन कर मेरी के हृदय में मिशन के प्रति उत्सुकता बढ़ती गयी। वे अकसर कहती थीं : “मैं भी उत्तर भारत में जाना चाहती हूँ - गरीबों की सेवा करने तथा उनके लिए मरने के लिए”।
उत्तर भारत में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने येसु के बारे में नहीं सुना है और उन्हें शायद येसु के बारे में सुनने का अवसर ही नहीं मिला है। इसी सच्चाई को जानते हुए फ्रांसिस्कन क्लारिस्ट धर्मसमाज सन 1960 में धर्मबहनों को उत्तर भारत में भेजने लगा। इस बात ने ही सिस्टर रानी मरिया को भी उत्तर भारत में एक मिशनरी के रूप में जाने को प्रेरित किया। “प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।“ (लूकस 4:18-19) इसी सुसमाचारीय वाक्य को अपनी डायरी में लिख कर उसे सिस्टर रानी मरिया ने अपने जीवन का आदर्श-वाक्य बनाया। उन्हें अपनी मिशनरी बुलाहट पर पक्का विश्वास था। अपनी कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए उन्होंने स्थानीय भाषा अच्छी तरह सीखने का निर्णय लिया। इस उद्देश्य से 9 जुलाई 1975 को वे पटना के नोत्रे डाम सिस्टर्स के धर्मक्षेत्रीय अधिकारी के भवन में रह कर हिन्दी भाषा सीखने लगी।
भाषा के अध्ययन के बाद 24 दिसंबर 1975 को सिस्टर रानी मरिया बिजनूर धर्मप्रान्त में स्थित सेंट मेरीज़ कॉनवेंट पहुँची। बिजनूर में ही सिस्टर रानी मरिया के मिशनरी जीवन की शुरूआत हुयी। वे अकसर कहती थी, “मिशनरी के रूप में मेरा जन्म और पालन बिजनूर में ही हुआ”।
स्थानीय शिक्षकों के अभाव में सिस्टर रानी मरिया बिजनूर के सेंट मेरीज़ स्कूल में एक शिक्षिका के रूप में नियुक्त की गयी हालाँकि वे गाँव में रह कर गरीबों की सेवा करना चाहती थीं।
उन्होंने 8 सितंबर 1976 से 7 आगस्त 1978 तक लगभग दो साल तक एक शिक्षिका के रूप में सेवा की। इस बीच रोज स्कूल में पढ़ाने के बाद वे सामाजिक कल्याण के कार्य में समय बिताती थी।
दो साल तक स्कूल में सेवा करने के बाद 21 जुलाई 1983 तक वे सामाजिक कल्याण के कार्य में अपना पूरा समय बिताने लगी। अपनी कार्यक्षमता बढ़ाने हेतु उन्होंने समाजशास्त्र का अध्ययन किया। इस समय भी उन्होंने अपना सामाजिक सेवा जारी रखी। 22 मई 1980 को केरल में अंकमाली के सेट होर्मिस चर्च में उन्होंने अपना नित्य वृत धारण किया।
हालाँकि बिजनूर में उनका कार्यकाल बहुत ही छोटा था, उनकी यह कोशिश रही कि वे वहाँ के गाँव-गाँव के एक-एक बच्चे, एक-एक मरीज और एक-एक शोषित गरीब व्यक्ति तक पहुँचे। उस समय के पल्लि-पुरोहित, फादर वर्गीस कोट्टूर कहते हैं, “सिस्टर रानी मरिया में प्रकट फ्रांसिस्की सादगी तथा प्रसन्नचित्तता का प्रभाव उन सबों पर पडा, जो उनके संपर्क में आये थे।“ सिस्टर इन्फंट मेरी लिखती हैं, “कड़ाके की सर्दी, मूसलाधार वर्षा, तीव्र गर्मी, अनियमित भोजन, पानी की कमी, यात्रा की जोखिम या असहायता के समय का अकेलापन – इन में से कोई भी बात सिस्टर रानी मरिया के मिशनरी कार्य में कभी बाधा नहीं बनी।” जब फादर कोट्टूर को सिस्टर रानी मरिया की आकस्मिक मृत्यु की खबर मिली, तब उन्हें सिस्टर रानी मरिया के शब्द याद आये – “मैं इन लोगों के लिए अपनी जान की कुर्बानी दूँगी।”
21 जुलाई 1983 को सिस्टर रानी मरिया को उनकी अधिकारियों ने सतना धर्मप्रान्त के ओडगडी भेजा। वे 25 जुलाई 1983 को वहाँ पहुँची। वहाँ उन्हें धर्मप्रान्तीय स्थर पर सभी सामाजिक कल्याण कार्यों का संयोजक नियुक्त किया गया। उन्होंने गरीबों और पददलितों को ऊपर उठाने का हर संभव कोशिश की।
उनका दृढ़विश्वास था कि येसु के द्वारा घोषित पूर्ण मुक्ति पाने हेतु कोई भी बलिदान ज़्यादा नहीं है। उन्होंने बच्चों, युवकों तथा वयस्कों के लिए शैक्षणिक प्रणालियों को रूप दिया। उन्होंने गरीबों और शोषितों को भारत के नागरिक होने के नाते उनके अधिकारों तथा ज़िम्मेदारियों से अवगत कराया। इसके फलस्वरूप अत्याचार करने वाले सिस्टर रानी मरिया का विरोध करने लगे और उन पर यह आरोप लगाने लगे कि वे ये सब कार्य लोगों का धर्मान्तरण कराने के लिए कर रही हैं। ऐसे लोगों की धमकी से सिस्टर रानी मरिया पीछे हटने को तैयार नहीं थी, बल्कि वे और भी ज़्यादा दृढ़संकल्प के साथ आगे बढ़ने लगे। 1 जून से 31 जुलाई 1985 तक सिस्टर रानी मरिया ने अपने व्यस्थ जीवन के बीच प्रार्थना भवन, पोर्सिन्कुला, एफ़.सी.सी. जेनरलेट, आलुवा में दो महीने का समय मौन प्रार्थना और ध्यान-मनन् में बिताया। 30 मई 1989 से 15 मई 1992 तक सिस्टर रानी मरिया ने स्थानीय मठाधिकारी के पद पर सेवा की। इस समय सिस्टर ने रीवा विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात् 8 सितंबर 1991 से 15 दिसंबर 1994 तक सिस्टर रानी मरिया ने अमला प्रोविन्स के समाजसेवा विभाग की सलाहकार का कार्य भी किया।
सिस्टर रानी मरिया के मेहनत और कार्यक्षमता पर आश्चर्य प्रकट करते हुए, उस समय के प्रोविन्शियल सुपीरियर मदर मरियन्ना ने अपने आधिकारिक दौरे पर कहा, “ओह! कितना बडा उत्साह! कितनी बडी बहादुरी! ये इतने सारे कार्य कैसे कर सक रही हैं। ये एक असाधारण व्यक्तित्व है। अगर मुझे इस प्रतिभा का एक अंश भी मिल जाता तो मैं कितना खुश होती! अगर रानी मरिया इसी प्रकार आगे बढ़ती है, तो वे अवश्य ही हत्यारों का शिकार बन जायेंगी।” जब सिस्टर रानी मरिया ओडगडी में कार्यरत थी, उन्होंने लोगों के सहयोग से विकास के कार्यों के द्वारा ओडगडी का चेहरा ही बदल दिया। फादर मैत्यु वट्टाकुज़ि, जो उस समय के धर्मप्रान्तीय समाज-सेवा आयोग के निर्देशक थे, कहते हैं, “ओडगडी में मिशन स्टेशन आरंभ होने से पहले ही वहाँ कुछ ख्रीस्तीय परिवार रहने लगे थे। सिस्टर रानी मरिया उनसे मिलने जाती थीं और उन्हें धर्मशिक्षा देती थी। बहुत से आदिवासी और हरिजन सिस्टर रानी मरिया के प्रेम, अनुकम्पा तथा सहानुभूति के कारण ख्रीस्तीय विश्वास से प्रभावित होते थे। बिशप एब्रहाम मट्टम कहते हैं, “सिस्टर रानी मरिया का दृढ़विश्वास था कि सुसमाचार वाहक को गरीबों को येसु का प्रेम तथा उनका मुक्तिदायक सन्देश प्रदान करने के लिए और आगे बढ़ने में साथ देने के लिए गरीबों में रुचि रखना चाहिए।“
18 मई 1992 को सिस्टर रानी मरिया उदयनगर के स्नेहसदन कॉनवेन्ट पहुँची। एक अनुभवी समाज सेविका होने के कारण उन्होंने सब से पहले आस-पास के गाँवों के आदिवासियों का सर्वेक्षण किया। इस से उनको पता चला कि वहाँ के आदिवासी भाई-बहन कर्ज के कारण धनी लोगों के शोषण के शिकार बन गये थे। गरीबी के कारण उन्हें हर जरूरत के लिए कर्ज लेना पड रहा था और इसी कारण शोषण के चक्र से बाहर निकलना उनके लिए असंभव बन रहा था। इसका फायदा उठाते हुए अमीर लोग गरीबों की ज़मीन और अन्य संपत्ति पर कबजा कर रहे थे।
इसके अलावा उन गरीबों को विकास के लिए सरकारी योजनाओं तथा सहायताओं के बारे में कोई जानकारी नही मिलती थी। जागृति कार्यक्रमों के द्वारा सिस्टर रानी मरिया ने उपलब्ध योजनाओं तथा सुविधाओं के बारे में उन्हें अवगत कराया। उन्होंने उनका शोषण करने की अमीरों की प्रवणताओं से सतर्क रहने का सलाह भी दिया। फलस्वरूप उदयनगर के गरीब अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगे और शोषण के खिलाफ़ खडे होने लगे। सिस्टर रानी मरिया कई बार उन गरीब भाइ-बहनों के लिए सहायता की हर्जी लेकर सरकारी अधिकारियों से मिलने लगी। कुछ अधिकारियों ने उनकी मदद की तो अन्य अधिकारियों ने उनकी हँसी उडायी। एक बार एक नवदीक्षित बहन जो सिस्टर रानी मरिया के साथ एक बैंक अधिकारी के पास गरीबों के लिए सहायता माँगने गयी थी, ने अपना अनुभव इस प्रकार बताया – “
सिस्टर रानी मरिया क्रूस अपने हाथ में बैंक मैंनेजर से कहा, “सर, हमने इस जीवन का चयन कर यहाँ इसलिए नहीं आये कि हमारे पास जीविका चलाने का कोई संसाधन नहीं है, और न ही हमारे माता-पिता ने हमें अपने घर से निकाल दिया है। देखिए, हमने इस प्रकार का जीवन चुन लिया है – एक बलिदान का जीवन, गरीबों में ख्रीस्त की सेवा करने के लिए।” धीरे-धीरे सिस्टर रानी मरिया उनकी शालीनता, शांतिभाव तथा ईमानदारी के कारण कई अधिकारियों की प्रशंसा की पात्र बन गयी।
फ्रांसिस्कन करिश्मा से प्रभावित होकर अत्याचारियों के प्रति द्वेष के बिना उन्होंने अपने आप को दीन-दुखियों तथा पददलितों के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। प्रार्थना में ही सभी विघ्नबाधाओं का सामना करने की शक्ति उन्हें मिलती थी। सिस्टर लिज़ा याद करती है, “सिस्टर रानी मरिया रोज सुबह 4 बजे उठ कर बहुत समय व्यक्तिगत प्रार्थना में बिताती थी। तत्पश्चात् वे सामुदायिक प्रार्थना में सक्रिय रूप से भाग लेती थी। सामुदायिक प्रार्थना की अगुवाइ करने में वे उत्सुक और सृजनात्मक थी।
सन 1994 में सिस्टर रानी मरिया को प्रोविन्स के समाज सेवा विभाग की सलाहकार के रूप में चुना गया। तब उन्हें प्रोविन्स के सभी समाज सेवा कार्यों को समन्वित करने का अवसर मिला। सिस्टर रानी मरिया ने मेहनत कर उदयनगर में परिवर्तन लाने की बहुत कोशिश की। उन्होंने पड़ती ज़मीन को कृषि-भूमि में परिणित करने में किसानों की मदद की। उन्होंने कुछ युवक-युवतियों को चुन कर उन्हें अनुप्राणदाता बनने के लिए प्रशिक्षण दिया और उन्हें गरीबों तथा अपने आपको सरकारी योजनाओं का फायदा उठा कर ऊपर उठाने को सक्षम बनाया। सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए माता-पिताओं को प्रेरित किया। इस प्रकार उन्होंने उदयनगर से गरीबी हटाने में सफल रही। सिस्टर रोज़ का कहना है – “सिस्टर रानी मरिया ने ज़्यादात्तर आदिवासियों तथा दीन-दुखियों के बीच सेवा-कार्य किया। उन लोगों ने उन्हें एक माँ के समान प्यार किया क्योंकि उन्होंने पहली बार उनके जीवन में रुचि रखने वाले किसी व्यक्ति को पाया। उनका जीवन गरीबों के लिए समर्पित किया गया था। यह उनके स्वभाव में नहीं था कि वे परेशानी के बीच हार मान लें।“ ये विकास के कार्य बडे लोगों की योजनाओं विरुध्द थी, स्वाभाविक था कि वे उनसे नाराज हों। वे उन्हें पराजित करने, हटाने या खत्म करने की योजनाएँ बनाने लगे। वे इसके लिए एक मौका खोज रहे थे।
उनकी मृत्यु के आठ दिन पहले, भोपाल स्थित प्रोविन्शियल हाउस अंतिम बार पहुँचने कर मदर जनरल हेनरी सुसो से बातें करती हुयी सिस्टर रानी मरिया ने कहा, “हमें अपने मिशन कार्य में सुरक्षा और आराम नहीं खोजना चाहिए। बल्कि हमें ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए। अनेक धर्मबहनों को मिशन स्टेशनों के गाँवों में गरीबों की सेवा करने हेतु अपने जीवन को अर्पित करना चाहिए।” उन्होंने मदर इन्फ़ंट मेरी को अपने मिशन क्षेत्र उन्हें मिली धमकियों से अवगत कराया और कहा, “मैं येसु के प्रति प्यार और गरीबों के खातिर एक शहीद के रूप में मरना चाहती हूँ।”
रोज की तरह सिस्टर रानी मरिया 25 फरवरी 1995 को भी बडे सबेरे उठी. उन्हें बस में इन्दौर की ओर यात्रा करनी थी। वहाँ से भोपाल और भोपाल से ट्रेन में केरल जाने का प्रोग्राम था। सिस्टर लिज़ा रोस याद करती है – “जब सुबह मैंने अपने मठ के प्रार्थनालय में प्रवेश किया, तब सिस्टर रानी मरिया सब सिस्टरों से पहले ही वहाँ बैठी हुयी थी। भोजनालय में नाश्ता करने के पश्चात् अपनी आदत के अनुसार उन्होंने बाइबिल खोली, तो उन्हें नबी इसायाह 49:16 मिला जहाँ लिखा है, “मैंने तुम्हें अपनी हथेलियों पर अंकित किया है, तुम्हारी चारदीवारी निरन्तर मेरी आँखों के सामने है।”
दो धर्मबहनों के साथ सिस्टर रानी मरिया बस स्टेंड पहुँची। वहाँ पर उन्हें यह बताया गया कि बस रद्द की गयी है। यह सुन कर जब वे वापस जा रहे थे, तब रास्ते में उन्होंने देखा कि ’कपिल’ नामक बस जिसमें उन्हें यात्रा करनी थी वहाँ से निकलने वाली थी। सिस्टर लिज़ा ने परिचालक से एक सीट सिस्टर रानी मरिया के लिए आरक्षित करने का अनुरोध किया। तब उनको बताया गया कि बस 8.15 बजे रवाना होगी और सिस्टर रानी मरिया कॉन्वेंट के सामने से ही बस में चढ़ सकती हैं।
कुछ ही समय में बस कॉन्वेंट के सामने खडी हो गयी और अपनी सहयोगी धर्मबहनों से विदा ले कर सिस्टर रानी मरिया बस में चढ़ गयी। सिस्टर लिज़ा ने बेग लेकर बस में चढ़ने की मदद की। सफ़ेद कपडे पहने एक युवक ने सिस्टर रानी मरिया का बेग ड्राइवर की सीट के पास रखने के बाद सिस्टर से पीछे की एक सीट पर बैठने को कहा। यह उदयनगर में एक असाधारण व्यवहार था क्योंकि सिस्टरों को हमेशा आगे की सीट दी जाती थी। उस बस में अलग-अलग सीटों पर बैठे हुए करीब 50 यात्रियों में तीन व्यक्तियों का एक ही लक्ष्य था – सिस्टर रानी मरिया को मार डालना। जीवन सिंह, उनका नेता, अपने अंगरक्षक के साथ पीछे की सीट पर बैठा हुआ था। समुन्दर सिंह नामक 28 साल का युवक सिस्टर रानी मरिया के पास ही बैठा हुआ था। जीवन सिंह यह बोल कर सिस्टर रानी मरिया का अपमान करने लगा, “तुम केरल से इधर क्यों आयी हो? यहाँ के आदिवासियों का ईसाइ धर्म में धर्मान्तरण करने आयी हो? हम कभी ऐसा होने नहीं देंगे।“
बस करीब 20 किलोमीटर चलने के बाद जंगल पहुँच गयी थी। समुन्दर सिंह ने अपनी सीट पर से उठ कर ड्राइवर को बस रोकने को कहा। फिर उसने बाहर निकल कर एक पत्थर पर नारिएल फोड कर वापस आ कर नारिएल के टुकडे यात्रियों को प्रसाद के रूप में खिलाया। उसने एक टुकडा सिस्टर रानी मरिया को भी देने के लिए हाथ बढ़ाया, बल्कि तुरन्त ही अपना हाथ वापस खींच लिया। सिस्टर ने उस से पूछा, “आप इतने खुश क्यों हैं।” “इसी कारण” बोल कर उसने छिपे हुए चाकू निकाल कर सिस्टर के पेट पर मारा। उसके बार उसने सिस्टर पर बार-बार प्रहार किया। बस रुक गयी। उसने सिस्टर को खींच कर बाहर निकाला और उनके शरीर पर फिर से उनकी मृत्यु तक चाकू मारने लगा। पोस्टमोर्टम रिपोर्ट के मुताबिक सिस्टर के शरीर में 40 बडे तथा 14 छोटे घाव थे। मृत्यु तक सिस्टर ’येसु’, ’येसु’ बोलती रही। कोई भी यात्री सिस्टर को बचाने के लिए आगे नही आया। वे सब भाग गये। उनमें से एक ने बाद में सिस्टर लिज़ा रोस को इस घटना का विवरण सुनाया।
सिस्टर रानी मरिया की हत्या की योजना पहले से ही बनायी गयी थी। सन 1994 में दिसंबर महीने की शुरूआत में पंचायत चुनाव से पहले कन्नाड गाँव के लोगों और सेमली गाँव के लोगों के बीच झगडा हुआ था जिसमें जीवन सिंह घायल हो गया था। पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ़्तार कर लिया था, उनमें से कई लोग बेगुनाह थे। सिस्टर रानी मरिया ने मदद कर उन लोगों को जमानत पर छुडाया। इससे जीवन सिंह क्रोधिध हो गये और उन्होंने सिस्टर रानी मरिया की हत्या की योजना बनायी।
10.45 बजे पुलिस ने उदयनगर की सिस्टरों को यह खबर दी कि सिस्टर रानी मरिया की हत्या की गयी है, उनकी लाश सडक पर पडी है, आप लोग जाकर उसे ले सकते हैं। सिस्टरों के पास कोई गाडी न होने के कारण उन्होंने इन्दौर बिशप्स हाउस तथा भोपाल प्रोविन्शियल हाउस में फोन से खबर पहुँचायी। यह खबर सुन कर बिशप डॉ. जार्ज अनाथिल कुछ पुरोहितों के साथ दोपहर 2 बजे जगह पर पहुँच कर बस के किनारे सिस्टर रानी मरिया की खून में भिगा हुया शरीर देखा। बिशप जार्ज सभी औपचारिकताओं को पूरा कर लाश इन्दौर बिशप्स हाउस ले गये। उन्होंन उसे वहाँ विश्वासियों के दर्शन के लिए रखा।
सिस्टर रानी मरिया की हत्या की खबर देश भर में जल्द ही फैल गयी। बहुत से लोग उनके पार्थिव शरीर के दर्शन करने आये। सरकारी अधिकारियों को इस विषय में ज्ञापन सौंपे गये। 27 फरवरी सुबह 7 धर्माध्यक्षों, 100 से अधिक पुरोहितों तथा हज़ारों लोकधर्मियों की उपस्थिति में मिस्सा बलिदान चढ़ाने के बाद सिस्टर रानी मरिया का पार्थिव शरीर लेकर जुलूस करीब 125 गाडियों में 102 किलोमीटर दूर उदयनगर की ओर बढ़ी। वहाँ पर कई धार्मिक नेताओं ने रानी मरिया की शहादत की सराहना की। उदयनगर में चर्च के पास ही एक कब्र में उनको दफनाया गया।
“तेरी शिक्षा मुझे ज्योति प्रदान करती और मेरा पथ आलोकित करती है।”(स्तोत्र 119:105) सिस्टर रानी मरिया ने इस ईशवचन को अपने कमरे में अलमारी पर बडे अक्षरों में लिखा था। सिस्टर हमेशा ईशवचन का मार्गदर्शन ले कर ही आगे चलती थी। वे सामाजिक सेवा-कार्य करने के पहले अकसर अपने सहयोगियों एकत्र कर उन्हें ईशवचन सुनाती थी। अपने कार्यों के बीच में वे प्रार्थना और भजन और भजन के लिए समय निकालती थी। येसु का सन्देश किसी को भी न दे पाने पर वे दुखी होती थीं। इस संबंध में मदर मरियन्ना का कहना है – “सिस्टर रानी मरिया को अन्य धर्मावलंबियों के बीच भी येसु का नाम ले कर प्रार्थना करने की विशेष कृपा मिली थी। वे इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करती थी। लेकिन वे दूसरे धर्मावलंबियों के प्रति हमेशा सहिष्णुता प्रकट करती थी। वास्तव में उनके सहयोगियों में अधिकत्तर गैर ख्रीस्तीय थे। वे हमेशा दूसरों के प्रति संवेदनशील थी।
“प्रभु! यह पाप इन पर मत लगा!” (प्रेरित-चरित 7:60)” संत स्तेफनुस के ये शब्द ईश्वर की सेविका रानी मरिया के स्मारक पर अंकित हैं। यह उनके क्षमामय प्रेम को दर्शाता है।
ईश्वर की सेविका की बहन सिस्टर सेल्मी पॉल ने इसी क्षमामय प्रेम का एक आदर्श तब प्रस्तुत किया जब 2 अगस्त 2002 को रक्षाबंधन के त्योहार के दिन वे इन्दौर के केन्द्रीय जेल जाकर अपनी बहन के हत्यारे समुन्दर सिंह के हाथ में राखी बाँध कर उसे एक भाई के रूप में स्वीकार किया। फादर मिखाएल सदानन्द सी.एम.आइ. और सिस्टर की धर्मसमाजी अधिकारी के साथ ही सिस्टर जेल पहुँची थी। हत्यारा समुन्दर सिंह आश्चर्यचकित होकर सिस्टर सेल्मी से माफी माँग ली और यह उन के मनपरिवर्तन का कारण बन गया
सिस्टर रानी मरिया की मृत्यु पर इन्दौर के धर्माध्यक्ष डॉ. जार्ज अनाथिल ने लिखा, “स्त्रियों को स्वतन्त्र बनाने तथा गरिबों, शोषितों तथा पीड़ितों को ऊपर उठाने हेतु सिस्टर रानी मरिया ने एक शहीद की मृत्यु को अपनाया। वे गरीब लोगों के हृदयों में अमर रहेंगी। उदयनगर में उनकी कब्र उनके प्रेम तथा अनमोल सेवा तथा बलिदान का प्रतीक बनी रहेगी।” यह एक भविष्यवाणी थी।
25 फरवरी 2003 को सिस्टर रानी मरिया को ईश्वर की सेविका घोषित किया गया।
18 नवंबर 2016 को इन्दौर के धर्माध्यक्ष चाको थोट्टुमरिकल की निगरानी में ईश्वर की सेविका रानी मरिया की कब्र खोली गयी और उनके पार्थिव अवशेष को उदयनगर के गिरजा घर में बनी नयी कब्र में स्थानान्तरित किया गया।
23 मार्च 2017, गुरुवार को संत पिता फ्रांसिस ने कोन्ग्रिगेशन फ़ॉर द कॉस ऑफ़ द सेन्ट्स के अधीक्षक कार्डिनल अमातो को ईश्वर की सेविका रानी मरिया को शहीद घोषित करने के आदेश को घोषित करने का अधिकार दिया। 04 नवंबर 2017 को इन्दौर में सिस्टर रानी मरिया को धन्य घोषित किया गया।
हे स्वर्गिक पिता, हमें तेरी आँखों के सामने जीवन बिताने की कृपा प्रदान कर। तेरी उपस्थिति की प्रेममय रहस्य को ग्रहण करने में हमारी सहायता कर और हमें तुझे सारे हृदय, मन और आत्मा से प्यार करने की कृपा प्रदान कर।
हे प्रभु अच्छे और बुरे दिनों में तुझे प्यार करने में मेरी सहायता कर – जब मैं निराश होती हूँ और जब मैं अपने को शक्तिशाली महसूस करती हूँ। तेरे अपरिवर्तनशील प्रेम पर भरोसा करने में मेरी सहायता कर ताकि मैं भय और चिन्ता के बिना उस में आनन्द मना सकूँ।
हे पिता, तेरे प्रेम के लिए तुझे धन्यवाद। हम इसके लिए भी तुझे धन्यवाद देते हैं कि हम अपनी अच्छाई स्वयं देखने से पहले ही तू हमारी अच्छाई देखता है। तेरी अक्षय दया पर गहराई से विश्वास करने में हमारी सहायता कर और हमें तेरे प्रेम तथा शांति का साधन बना।
हे पिता तेरे रहस्यों को समझने में मेरी सहायता कर। मुझे हिम्मत के साथ दुख-दर्द को स्वीकार करना सिखा हलाँकि मैं चंगाई तथा राहत खोजती हूँ। तेरी कृपा से मैं अपने सभी दुख-दर्द तथा अपमान को प्रायश्चित्त के मनोभाव से तुझे अर्पित करती हूँ। मैं पूर्ण आज्ञाकारिता की प्रतिज्ञा करती हूँ। आमेन
हे परम विश्वसनीय पिता, मुझे भरोसे का वर दे ताकि मैं हर दैनिक जीवन की परिस्थिति में तुझ पर विश्वास कर सकूँ।
हे विनीत पिता अच्छे और बुरे दिनों में तेरे प्रेम पर विश्वास करने में हमारी सहायता कर। तुझे खोजने और पाने हमें सिखा ताकि हम तुझे प्यार करें – तुझसे कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ तेरे लिए।
हे पिता, मैं दुर्बल हूँ और धार्मिकता से दूर हूँ। मुझे यह समझा कि तू इस दुनिया के शक्तिहीनों का अपयोग कर शक्तिशालियों का सामना करता है। तेरे राज्य के निर्माण करने की मेरी इच्छा को साकार बनाने के लिए अगला कदम लेने का मार्गदर्शन मुझे प्रदान कर। मेरे विनम्र कार्यों पर आशिष बरसा ताकि मैं अपने जीवन से तेरे नाम को महिमान्वित कर सकें। आमेन।
हे पवित्रतम आत्मा, मरियम के साथ एक होकर येसु के आनन्द, दुख तथा महिमा के रहस्यों को पुन: जीने की कृपा हमें प्रदान कर। हमें कृपा दे हम अपने बपतिस्मा के विश्वास से प्रेरणा पायें, यूखारिस्त से पोषण पायें, और पेन्तेकोस्त की कृपा से नवीनीकृत होकर वचन तथा कर्म से येसु तथा उनके दिव्य हृदय के विश्वसनीय साक्षी का जीवन बिता सकें। आमेन।
हे परम प्रेममय पिता, इस प्रभात में मैं अपने आपको तेरे चरणों में रखती हूँ। मुझे, मेरे माता-पिता, भाइ-बहनों तथा रिश्तेदारों तथा जिन धर्मबहनों के साथ मैं जीवन बिताती हूँ उन सब को प्राप्त सभी कृपादानों तथा कृपाओं के लिए मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ। उनके द्वारा मैं तेरी सहायता, उदारता, आनन्द और उन सब से ज़्यादा प्रेम का अनुभव करती हूँ। मैं तुझे इसलिए भी धन्यवाद देती हूँ कि तूने मुझे तेरी संतान बनने की कृपा दी। मुझे मालूम है कि तेरे बिना मैं कुछ भी नहीं हूँ।
तू मेरी सहायता कर कि मैं अपनी खुशियों, दुखों, पराजयों तथा कमियों को झेल सकूँ। मुझे हर हालत में मीठे, विनीत, दयावान तथा खुश बने रहना सिखा। मेरे जीवन की राह में आने वाले मुसीबतों से फायदा उठाने की शिक्षा मुझे दे। मैं यह तुझसे माँगती हूँ।