फरवरी 23

संत पालीकार्प

प्रभु येसु ने अपने स्वर्गारोहण के पहले अपने शिष्यों को यह आदेश दिया था कि वे संसार के कोने-कोने में जाकर सारी सृष्टि को सुसमाचार सुनाये तथा लोगों को पावन तृृत्व के नाम पर बपतिस्मा दे। शिष्यों ने इस कार्य को समपर्ण की भावना के साथ पूरा किया। कई लोग प्रेरितों के शिष्य बने इन शिष्यों ने प्रेरिताई कार्यों में सहयोग दिया तथा स्वयं प्रेरितों के मुॅह से ही प्रभु के संदेश की शिक्षा प्राप्त की। संत पोलीकार्प ने प्रेरितों से ही शिक्षा प्राप्त की थी। लगभग सन् 80 में बाल्यावस्था में ही उन्होंने ख्रीस्तीय धर्म को अपनाया। वे प्रेरित संत योहन के शिष्य थे। माना जाता है कि सन्् 96 में पाथमोस द्वीप जाने के पहले ही प्रेरित संत योहन ने पोलीकार्प को स्मिरणा का धर्माध्यक्ष बनाया था। उनको कई प्रकार के दुख-संकटो, अत्याचारों तथा निन्दा का सामना करना पडा। कलीसिया के दूसरी पीढी के आध्यात्मिक नेता होने के कारण पोलीकार्प जैसे लोगों को कई विवादों का सामना करना पड़ा। प्रेरितों ने येसु के मुॅह से जो शिक्षा प्राप्त की थी वे उस शिक्षा का अधिकार के साथ प्रचार कर पाते थे। उनके चल बसने के बाद दूसरी पीढी के नेताओं के सामने यह चुनौती खडी हो गयी कि वे लोगों को प्रामाणिक शिक्षा प्रदान करें।

पोलीकार्प इन चुनौतीपूर्ण तथा विषम परिस्थितियों के बीच अपने आध्यात्मिक गुणों से सम्पन्न थे और ख्रीस्तीयों मूल्यों पर आधारित जीवन बीताते रहें। उन्होंने खुलकर अपसिन्द्वांतों तथा विच्छिन्न सम्प्रदायों का सामना किया तथा सुसमाचार की सच्चाईयों पर वे हमेषा दृृढ़ बने रहे। उन्होंने अपसिद्वांत फैलाने वाले मार्सियन को शैतान का पहलौठा कहा। इसी प्रकार उन्होंने दूसरे एक अपसिंद्वांत फैलाने वाले व्यक्ति को शैतान का जेठा पुत्र कहा। सन् 158 में धर्माध्यक्ष पोलीकार्प ने संत पापा अनिसेतुस से मिलकर पास्का त्योहार मनाने के दिन के बारे में पूर्व एवं पष्चिम की पंरपराओं के बारे में विचार विमर्ष करने हेतु रोम की यात्रा की। मारकुस औरेलियुस एवं लूसियुस वेरूस शासनकाल के छठवें वर्ष में ख्रीस्तीय विश्वासियों के विरूद्ध बहुत गंभीर अत्याचार छेडा गया इस संदर्भ में धर्माध्यक्ष पोलीकार्प को भी पकड लिया गया। सम्राट को प्रभु कह कर अत्याचार से बचने का प्रलोभन दिये जाने पर निर्भिकता से उन्होंने इंकार किया तथा ख्रीस्त पर अपने विश्वास को पुनः घोषित किया। मृृत्य के पहले उन्होंने लम्बी प्रार्थना कर अपने धर्मप्रांत के विश्वासियों के लिये ईश्वर के संरक्षण की विनती की। जब उन्हें आग में डालने की धमकी दी गयी तो उन्होंने परवाह नहीं की क्योंकि उन्हें मालूम था कि एक घण्टे की आग में पडकर मरना अंनत आग में डाले जाने से बेहतर है। जब अत्याचारियों ने देखा की उनके शरीर पर आग का भी असर नहीं पड़ रहा था तो उन्होंने उनके शरीर को चाकू से घोंप दिया। तब रक्त निकला की आग बुझ गयी। राजनैतिक अधिकारियों ने उनके पार्थिक शरीर से भी विश्वासियों को वंचित किया। लेकिन कुछ लोगों ने उनकी हडियों की चोरी की ताकि वे उनकी शहादत को याद करते रहे और दूसरे विश्वासियों को भी अत्याचार का सामना करने के लिये सशक्त बना सकें। माना जाता है कि उनकी शहादत 23 फरवरी सन्् 156 में हुई थी।


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