फरवरी 20

संत फ्रांसिस्को मार्तो और संत जैसिन्ता मार्तो

संत फ्रांसिस्को मार्तो (11 जून 1908 – 4 अप्रैल 1919) और संत जैसिन्ता मार्तो (11 मार्च 1910 – 20 फरवरी 1920) वे बच्चे थे जिन्होंने अपनी चचेरी बहन लूसिया डॉस सैंतोस (1907 – 2005) के साथ फातिमा में माता मरियम के दिव्य दर्शन किये। उन्होने 1916 में तीन बार और 1917 में अनेक बार माता मरियम का दर्शन किया। इन दर्शनों के बाद फातिमा ख्रीस्तीय जगत के लिए एक प्रसिध्द तीर्थस्थल बन गया।

फ्रांसिस्को और जैसिन्ता मैनुअल और ओलिंपिया मार्तो के सबसे छोटे बच्चे थे और वे पुर्तगाल के फातिमा के पास अलजस्ट्रेल गाँव के निवासी थे। वे अनपढ़ थे लेकिन उनके पास एक समृद्ध मौखिक परंपरा थी जिस पर वे भरोसा करते थे, और उन्होंने अपने चचेरी बहन लूसिया के साथ काम किया, परिवार की भेड़ों की देखभाल की। लूसिया के संस्मरणों के अनुसार, फ़्रांसिस्को का स्वभाव शांत था, संगीत की ओर झुकाव था, और सोचने के लिए वे अकेले रहना पसंद करते थे। जैसिन्ता भावनात्मक रूप से चंचल तथा स्नेही थी। उनकी आवाज मधुर थी और नृत्य के लिए उन्हें एक विशेष कृपा प्राप्त थी। दर्शन शुरू होने के बाद तीनों बच्चों ने संगीत और नृत्य छोड़ दिया, यह मानते हुए कि इन और अन्य मनोरंजक गतिविधियाँ पाप की ओर उन्हें ले जायेंगी।

उनके दिव्य अनुभवों के बाद भी, उनके मौलिक व्यक्तित्व वही रहे। फ्रांसिस्को ने अकेले प्रार्थना करना पसंद किया, जैसा कि उन्होंने कहा, "दुनिया के पापों के लिए येसु को सांत्वना देने के लिए"। तीसरे दर्शन में बच्चों को दिखाए गए नरक की भयानक दृष्टि से जैसिन्ता बहुत प्रभावित हुयी थी। वे तपस्या और बलिदान के माध्यम से पापियों को बचाने की आवश्यकता के बारे में गहराई से आश्वस्त हो गई क्योंकि कुँवारी मरियम ने कथित तौर पर बच्चों को ऐसा करने का निर्देश दिया था। तीनों बच्चों, लेकिन विशेष रूप से फ़्रांसिस्को और जैसिन्ता ने इस उद्देश्य के लिए कड़े आत्म-त्याग का अभ्यास किया।

अगस्त 1918 में, जैसे ही प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो रहा था, फ्रांसिस्को और उसकी बहन दोनों बीमार हो गये। ठीक आठ महीने बाद, फ्रांसिस्को को पता था कि उनका समय आ रहा है। एक दिन उन्होंने पवित्र यूखारिस्त में येसु को ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। अगली सुबह 3 अप्रैल 1919 को उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें फातिमा में एक छोटे से कब्रिस्तान में दफनाया गया। बाद में उन्हें कोवा दा इरिया के पवित्र स्थल में स्थानांतरित कर दिया गया।

19 फरवरी 1920 को, जैसिन्ता ने अस्पताल में आध्यात्मिक सेवा प्रदान करने वाले पुरोहित से जिन्होंने उनका पापस्वीकार सुना था, परमप्रसाद तथा विलेपन का संस्कार ग्रहण करने की अपनी इच्छा यह कह कर प्रकट की कि उस रात को वे मरने वाली हैं। लेकिन पुरोहित उनसे कहा कि उनकी हालात उतनी गंभीर नहीं है और इसलिए वे अगले दिन परमप्रसाद तथा विलेपन का संस्कार देने आयेंगे। उसी रात को उनकी मृत्यु हुयी

13 मई, 2000 को, फ्रांसिस्को और जैसिन्ता दोनों को धन्य घोषित किया गया था और 13 मई, 2017 को, फातिमा की 100 वीं वर्षगांठ पर, उन्हें पोप फ्रांसिस द्वारा संत घोषित किया गया। वे कैथोलिक कलीसिया के सबसे कम उम्र के संत हैं, जो शहीदों के रूप में नहीं मरे, जिनमें सबसे कम उम्र की जैसिन्ता थी।


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