गोन्जालो गार्सिया का जन्म सन 1556 में भारत के बसैन शहर में हुआ। उनके पिता पुर्तगाली सैनिक थे और माता एक भारतीय। बचपन में उन्होंने येसु समाज के पुरोहितों के साथ रह कर व्याकरण, दर्शन शास्त्र और रोमन इतिहास सीखे। वहाँ पर वे फादर सेबास्तियन गोनसाल्वेस के मार्गदर्शन में रहते थे। जब वे 13 साल के हो गये, तब उन्होंने जापान के मिशनरियों के साथ सेवा करने जाने के लिए फादर सेबास्तियन से अनुमति माँगी। फादर सेबास्तियन ने उन्हें नाबालिग होने के कारण दो साल के बाद ही अनुमति दी। जब वे जापान पहुँच गये, तो उन्होंने एक धर्मप्रचारक के रूप में अपना कार्य शुरू किया। इस प्रकार उन्होंने येसु समाज के पुरोहितों के साथ 8 साल तक काम किया। उन्होंने जापानी भाषा में प्रवीणता हासिल की थी और इसीलिए वे लोगों से विशेषतः बच्चों से अच्छा संपर्क बना पाये। उन्होंने येसु समाज में शामिल होने के लिए कोशिश की, परन्तु उन्हें स्थानीय होने के कारण प्रवेश नहीं दिया गया। इसलिए वे येसु समाज को छोड़ कर अलासाओ (Alacao) शहर में एक व्यापारी का काम करने लगे। व्यापार में उनकी काफी प्रगति हुयी और उनकी मुलाकात शहर के गणमान्य व्यक्तियों से यहाँ तक कि सम्राट से भी होने लगी। हालाँकि वे अपने व्यापार में बहुत ही सफल थे, फिर भी वे किसी धर्म-समाज के सदस्य बनने की कोशिश करते रहते थे। व्यापार के संबंध में जब वे फिलिप्पीन्स जाते थे, तब वहाँ पर वे फ्रांसिस्की धर्मसमाज के संपर्क में आये। उन्होंने उस धर्मसमाज के सदस्य बनने की अपनी इच्छा को प्रकट किया और उन्हें फ्रांसिस्की धर्मसमाज में उन्हें प्रवेश मिला। वे मनीला में एक धर्मप्रचारक के रूप में काम करने लगे। जापानी भाषा में प्रवीणता के कारण उन्हें 1593 में एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ अनुवादक के रूप में जापान जाने का अवसर मिला। शुरुआत की कुछ कठिनाइयों के बाद फ्रांसिस्की मिशनरियों को जापान में बड़ी सफलता मिली। उन्हें स्थानीय राजा तैकोसमा (Taikosama) की मित्रता भी प्राप्त हुयी।
मिशनरियों की सफलता पर बुद्ध धर्म के कुछ पुरोहित नाराज हो गये। उन्होंने फ्रांसिस्की मिशनरियों को निष्कासित करने के लिए राजा पर दबाव ड़ाला। परन्तु राजा मिशनरियों के पक्ष में थे। एक दिन सान फिलिप्पे नामक स्पेन के एक जहाज को तूफान के कारण जापान के बन्दरगाह में रुकना पड़ा। जहाज के कप्तान ने जापानी अधिकारियों में गलत धारणा उत्पन्न करने के लिए बताया कि स्पेन के राजा ने फ्रांसिस्की मिशनरियों को इसलिए भेजा था कि वे स्थानीय लोगों के साथ मिल कर राजा के विरुद्ध विद्रोह करें। इस अफवाह को सच मानते हुए राजा ने क्रुद्ध हो कर सभी मिशनरियों को पकड़ कर बन्दीगृह में ड़ाल दिया और उन्हें मार डालने का आदेश दिया। 8 दिसंबर 1596 को फ्रांसिस्की मिशनरियों को हिरासत में लिया गया और मार डाला गया। फरवरी 1597 में 26 मिशनरियों को नागसाकी के पहाड़ी प्रदेश में ले जाकर मार डाला गया। उनमें गोन्जालो गार्सिया प्रथम थे। क्रूस पर चढ़ाने के बाद उन मिशनरियों के हृदयों को भाले से छेदा गया। इन शहीदों के शरीरों को 40 दिन तक चीलों के भोजन बनने के लिए खुले में छोड दिया गया परन्तु वे शरीर ऐसे ही रह गये। 8 जून 1862 को संत पिता पीयुस नौवीं ने गोन्जालो गार्सिया को संत घोषित किया। वे भारत के सबसे प्रथम संत है। वे महाराष्ट्र के वसई धर्मप्रान्त के संरक्षक संत हैं।