सन्त फ्रान्सिस डि सेल्स पत्रकारों का संरक्षक माने जाते हैं। उनका जन्म सन् 1567 में फ्रांस में हुआ। यद्यपि फ्रान्सिस एक पुरोहित बनना चाहते थे, उन्होंने 13 साल तक इस बात दूसरों से छिपा कर रखा। वे ईश्वर की इच्छा की खोज कर रहे थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर अपनी इच्छा को प्रकट करेंगे और वे पुरोहित तभी बनना चाहते थे जब ईश्वर यह प्रकट करे कि उन्हें ऐसा जीवन बिताना चाहिए। फ्रान्सिस के पिता यह चाहते थे कि वे एक सैनिक बने। इसलिए उन्होंने फ्रान्सिस को पढ़ाई के लिए पेरिस भेजा। फ्रान्सिस चुप-चाप चले गये। फिर वे कानून में डॉक्टर की उपाधि प्राप्त करने के लिए पादुआ गये। लेकिन साथ साथ फ्रान्सिस ने साथ-साथ ईश्वशास्त्र भी सीखा और मानसिक प्रार्थना का अभ्यास भी किया।
एक दिन फ्रान्सिस घोड़े पर सवार थे। अचानक तीन बार घोड़े के ऊपर से गिर पडा। तीनों बार उनकी तलवार और म्यार भी नीचे गिरे। तीनों बार तलवार और म्यान ज़मीन पर क्रूस के रूप में गिरते थे। उन्हीं दिनों फ्रान्सिस को धर्मप्रान्त के प्रधान धर्माचार्य (provost) नियुक्त किये गये। कई कैल्विनवादियों को काथलिक कलीसिया में वापस लाने के लिए कड़ी मेहनत किया। इस के लिए धीरज के साथ उन्हें लम्बे समय तक काम करना पड़ा। सन् 1602 में फ्रान्सिस जेनेवा के धर्माध्यक्ष बनाये गये। सन् 1604 में फ्रान्सिस के जीवन एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक परिवर्तन शुरू हुआ। उसी साल जान दे शन्ताल से फ्रान्सिस का परिचय हुआ। शन्ताल ने फ्रान्सिस से उनके आध्यात्मिक गुरू बनने का निवेदन किया। शन्ताल रहस्यवादी जीवन में अग्रस र हो रही थी। वे आध्यात्मिकता में तेजी से आगे बढ़ रही थी। शन्ताल को मार्गदर्शन देने की ज़िम्मेदारी अपने आप पर उठाने पर फ्रान्सिस को भी आध्यात्मिकता में अपनी जड़ जमाने की चुनैती का सामना पड़ा।
फ्रान्सिस का यह मानना था कि एक धर्माध्यक्ष की सबसे प्राधमिक ज़िम्मेदारी लोगों को आध्यात्मिक मार्गदर्श्न देना है। फ्रान्सिस के अनुसार आध्यात्मिकता का यह मतलब नहीं कि हम अपनी ज़िम्मेदारियों से भागे, बल्कि उनमें भी ईश्वर का अनुभव करें। लोकधर्मियों का यह कर्तव्य है कि वे भी आध्यात्मिक जीवन में तरकी करें, यह न केवल पुरोहितों तथा धर्मसंघियों की चुनौती है। ’भक्तिमय जीवन का परिचय’ शीर्षक से उन्होंने सन् 1608 में जो किताब लिखी, वह साधारण लोकधर्मियों के मार्गदर्शन के लिए लिखी गयी थी। ईश्वर के लिए फ्रान्सिस का प्रेम भावुकताजनक था। वह ईश्वर के बारे सोचता रहता था, ईश्वर से मिलने की तीव्र इच्छा उनमें थी और वे ईश्वर के बारे में बोलना पसन्द करते थे। वे यह चाहते थे सभी लोग यह अनुभव अपना लें। उनको मालूम था कि ईश्वर के अनुभव का साधन प्रार्थना ही है। उन्होंने कहा, “मनन-चिन्तन में ईश्वर पर दृष्टि लगाने से आपकी आत्मा ईश्वर से भर जायेगी। अपनी प्रार्थनाएँ ईश्वर की उपस्थिति में शुरू करें।“ हमेशा व्यस्थ रहने वालों के लिए उनका यह सलाह था कि वे भी अपनी गतिविधियों के बीच-बीच में अपने हृदय में ईश्वर के साथ एकान्तता उत्पन्न कर ईश्वर से बातें करनी चाहिए। उनका यह मानना था कि प्रार्थना का प्रमाण व्यवहार है। उनका कहना था, “प्रार्थना में स्वर्गदूत और दूसरों के साथ संबन्ध में जानवर बनना दोनों पैरों का लंगड़ा बनने के समान है”। फ्रान्सिस के लिए सबसे गंभीर पाप किसी पर दोष लगाना या दूसरों के बारे में चुगुली करना है। 28 दिसंबर 1622 को एक धर्मबहन को मार्गदर्शन देते हुए ’विनम्रता’ कह कर अपने प्राण त्याग दिये। संत फ्रान्सिस डि सेल्स पत्रकारों का संरक्षक माने जाते हैं