संत आंद्रे बेसैट्टे कनाडा के एक बड़े और बेहद गरीब परिवार में पैदा हुए आठवें बच्चे थे। अल्फ्रेड उनका बपतिस्मा नाम था। उनके पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई और जब वे 12 वर्ष के थे, तब उनकी मां की मृत्यु क्षयरोग के कारण हुयी। आंद्रे बेसैट्टे ने अगले तेरह साल पूरे पूर्वोत्तर संयुक्त राज्य में कारखाने और खेत के काम सहित शारीरिक श्रम करते हुए बिताए। काफी भटकने के बाद, वह 25 साल की उम्र तक घर वापस आ गया। उनके पल्ली-पुरोहित ने उनकी आत्मा की उदारता और गहरी आस्था को पहचाना। उन्होंने मॉन्ट्रियल में होली क्रॉस के धर्मसमाज के लिए युवक की सिफारिश की। उन्होंने अल्फ्रेड के हाथ एक चिट्ठी भेजी जिसमें लगभग अविश्वसनीय भविष्यवाणी लिखी गयी थी कहा: "मैं आप के पास एक संत को भेज रहा हूं।"
अल्फ्रेड ने इसी पल्ली पुरोहित का नाम ’आंद्रे’ लिया, और बहुत कठिनाई के बाद एक धर्मभाई के रूप में धर्मसमाज में शामिल होने की अनुमति दी गई। उन्हें लड़कों के स्कूल के दरवाजे पर ध्यान देने का काम दिया गया था। उन्होंने मेहमानों का स्वागत किया, डाक वितरित की, और अन्य कार्यों को चलाया। लेकिन फिर कुछ विशेष घटनाएं बार-बार घटने लगीं। उनसे मिलने आए बीमार लोग उनके स्पर्श और प्रार्थना से ठीक होने लगे। भाई आंद्रे ने जोर देकर कहा कि यह प्रभु ईश्वर तथा संत यूसुफ़ कार्य थे। लेकिन इस तरह कनाडा के बीमार लोगों के लिए कई दशकों तक चलने वाली सेवकाई शुरू हुई। बीमारों की कतार इतनी लंबी हो गई कि वे अब स्कूल के दरवाजे पर अपना काम नहीं कर सकते थे। वे दिन भर लोगों से मिलते रहे। उन्होंने एक पहाड़ी पर संत यूसुफ़ के नाम पर एक तीर्थस्थान बनाया। यह तीर्थस्थान बहुत लोकप्रिय हो गया। यह आज भी, मॉन्ट्रियल में बहुत प्रभावशाली है। भाई अन्द्रे इसे पूरा होते देखने के लिए जीवित नहीं रहे। वे इतने लोकप्रिय थे कि उनकी मृत्यु पर उनके पार्थिव शरीर के दर्शन करने के लिए दस लाख से भी अधिक लोग एक्त्र हुए थे। उन्होंने लोगों को अपनी शिक्षा से नहीं बल्कि अपने उपचार और मानवता से प्रेरित किया।