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क्रूस रास्ता तथा क्रूस के पुण्य फल

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चालीसा काल एक ऐसा समय है जब हम प्रार्थना, उपवास तथा परोपकार के कार्यों के द्वारा अपने जीवन में सुधार लाना चाहते हैं। इस अवधि में हम कई भक्ति-कार्य भी करते हैं। काथलिक कलीसिया में चालीसा काल में प्रचलित भक्ति-कार्यों में 'क्रूस रास्ता' अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

यह भक्ति-कार्य कलीसिया की पूजन पध्दति का आधिकारिक हिस्सा नहीं है। इसलिए इसके विषय में कलीसिया में कोई नियम नहीं हैं। लेकिन इसे हम कम से कम चालीसा काल के हर शुक्रवार को करें, तो इससे हमें बडा आध्यात्मिक लाभ होगा। इसे हम चालीसा काल के हर दिन भी कर सकते हैं। कुछ लोग साल भर के हर शुक्रवार को यह भक्ति-कार्य करते हैं। यह हरेक विश्वासी के ऊपर निर्भर है वह इसे कब और कैसे करना चाहता है। अस्सीसी के संत फ्रांसिस, संत पाद्रे पियो और संत अल्फोन्सुस लिगोरी जैसे महान संत प्रतिदिन 'क्रूस रास्ता' करते थे। कलीसिया का विश्वास है कि जो भक्ति-भाव से 'क्रूस रास्ता' करते हैं, उन्हें विशेष कृपा प्राप्त होती है।

यह सच है कि बाइबिल में यह नही कहा गया है कि हमें क्रूस रास्ता करना चाहिए। लेकिन येसु की अन्तिम यात्रा की कई घटनाओं का वर्णन पवित्र बाइबिल में मिलता है—जैसे किरीन निवासी सिमोन द्वारा येसु की सहायता करना और येरूसालेम की महिलाओं द्वारा येसु के लिए विलाप करना। क्रूस मार्ग एक भक्ति-कार्य है जो हमें प्राचीन परम्परा से प्राप्त है। क्रूस रास्ते को लातीनी भाषा में 'विया क्रूचिस' अर्थात क्रूस का मार्ग या 'विया दोलोरिस' अर्थात दुख का मार्ग कहा जाता है। क्रूस रास्ते में हम प्रभु येसु की कलवारी की अंतिम यात्रा से संबंधित घटनाओं का स्मरण करते हुए, उन घटनाओं को दर्शाने वाली तस्वीरों के सामने मनन-चिंतन और प्रार्थना करते हैं। यह प्रभु येसु के दुखभोग पर मनन-चिंतन करने का समय है।

सुसमाचार के अनुसार, येसु के ऊपर यहूदियों के आरोपों को सुनने के बाद, पिलातुस ने यह जानते हुए भी कि येसु बिलकुल निर्दोष हैं, उन्हें क्रूस पर चढ़ाकर मार डालने का आदेश दिया। सैनिकों ने उनका उपहास किया और उनके कंधों पर भारी क्रूस रखकर उन्हें घसीटते हुए कल्वारी पहाड़ी की ओर ले गये। वहाँ उन्होंने येसु को क्रूस पर लिटाकर उनके हाथ-पैरों में कीलें ठोककर उनकी मृत्यु सुनिश्चित की। मृत्यु के पश्चात, उनके पार्थिव शरीर को एक कब्र में रखा गया।

संभवतः येसु के क्रूस मरण के पश्चात, माता मरियम ने उनके क्रूस मार्ग पर चलकर उनके दुखभोग को स्मरण किया होगा। सुसमाचार से हमें ज्ञात है कि ईश्वरीय रहस्यों को हृदय में संचित रखना उनकी विशेषता थी।

जैसे-जैसे ख्रीस्तीय धर्म का प्रचार हुआ, विश्वासी लोग येसु के जन्म, सार्वजनिक जीवन, दुखभोग, क्रूस मरण और पुनरुत्थान से जुडे हुए स्थानों की तीर्थयात्रा करने लगे। इस तीर्थयात्रा के दौरान, भक्तजन येसु की कल्वारी यात्रा के मार्ग पर चलकर विभिन्न स्थानों पर मनन-चिंतन और प्रार्थना किया करते थे। कुछ तीर्थयात्री पिलातुस के भवन से कल्वारी पहाड़ी तक का मार्ग तय करते, तो कुछ यात्रा को उलटे क्रम में करते थे।

हालाँकि, बहुत से विश्वासी येरूसालेम की तीर्थयात्रा करने में असमर्थ थे। इसलिए, उन्होंने अपने स्थान पर ही चित्रों और तस्वीरों के माध्यम से एक ऐसा वातावरण बनाया जहाँ वे येरूसालेम यात्रा के अनुभव को अपना सकें।

पाँचवीं सदी में, बोलोन्जा के धर्माध्यक्ष, संत पेत्रोनियुस ने ऐसे कई चैपल बनाए जो येरूसालेम के तीर्थस्थलों के प्रतीक थे। बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवीं सदी में येरूसालेम जाने वाले तीर्थयात्री, प्रभु येसु के 'पवित्र मार्ग' का विवरण प्रस्तुत करते हैं।

सन 1209 में अस्सीसी के संत फ्रांसिस ने फ्रांसिस्कन धर्मसमाज की स्थापना की। सन 1217 में, उन्होंने अपने धर्मसमाज के कूछ सदस्यों को मिश्र देश भेजा और 1219 में उन्होंने स्वयं येरूसालेम यात्रा की। 1342 में संत पिता क्लेमेन्ट छठवें ने पवित्र स्थलों के संरक्षण की जिम्मेदारी फ्रांसिस्कन धर्मसमाज को सौंप दी।

धीरे-धीरे, उनके माध्यम से 'क्रूस रास्ते' की परंपरा पूरे यूरोप में फैलने लगी। 1686 में, संत पापा इन्नोसेन्ट ग्यारहवें ने फ्रांसिस्कन धर्मसमाज को अपने गिरजाघरों में 'क्रूस रास्ते' की स्थापना की अनुमति दी।

यहूदी परम्परा के अनुसार संख्या 7 बहुत महत्वपूर्ण है। यह पूर्ण्ता को दर्शाती है। अगर आप 7 के साथ 7 जोडेंगे तो आपको 14 मिलेगा। क्रूस का बलिदान एक पूर्ण बलिदान है। इस पूर्णता तक केवल मनुष्य नहीं पहुँच सकता है। उसे ईश्वर की ज़रूरत है। येसु पूर्ण ईश्वर और पूर्ण मनुष्य हैं। वह सच्चा ईश्वर और सच्चा मनुष्य हैं। संत पापा क्लेमेन्ट बारहवें ने सन 1731 में इन स्थानों की संख्या 14 निर्धारित की। पहले, लोगों की इच्छा के अनुसार स्थानों की संख्या भिन्न-भिन्न होती थी।

क्रूस-रास्ता एक पूजन-विधि नहीं, बल्कि एक भक्ति-कार्य है। इसलिए, इसे विभिन्न रीति से किया जा सकता है। काथलिक कलीसिया में 'क्रूस रास्ते' से संबंधित कई प्रार्थनाएँ और गीत प्रचलित हैं। कहीं इसे नाटकीय रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो कहीं मीलों चलकर इसका अनुष्ठान किया जाता है। 'क्रूस रास्ते' के चौदह स्थानों में से केवल आठ स्थान बाइबिल पर आधारित हैं; शेष छह स्थान कलीसिया की परंपरा से प्रेरित हैं। उदाहरण के लिए, क्रूस रास्ते में हम देखते हैं कि येसु तीन बार क्रूस के नीचे गिरते हैं, लेकिन बाइबिल में येसु के क्रूस के नीचे एक बार भी गिरने का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार हम चौथे स्थान पर येसु की मुलाकात माता मरियम से होती है। लेकिन पवित्र बाइबिल इस विषय में कुछ नहीं कहती है। येसु का रक्तरंजित चेहरा पोछने वाली वेरोनिका भी पवित्र बाइबिल में नहीं है।

संत पापा योहन पौलुस द्वितीय ने सन 1991 में पुण्य शुक्रवार के दिन परम्परागत क्रूस रास्ते से ऐसे छ: स्थानों को हटा कर जिनका उल्लेख पवित्र बाइबिल में नहीं हैं, उनकी जगह पर पवित्र बाइबिल में दी गयी प्रभु येसु के दुखभोग से संबंधित घटनाओं को जोड कर क्रूस रास्ते की एक नई विधी प्रस्तुत की थी। यह परम्परागत क्रूस रास्ते की विधि को रद्द करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि उसके अलावा एक और विधि प्रस्तुत करने के उद्देश्य से दी गयी है।

हमारा एक साधारण अनुभव है कि राह चलते-चलते कभी कभी थकावट या किसी प्रकार की शारीरिक बीमारी या दुख-दर्द के कारण चलना मुशकिल हो जाता है। जब चलना असंभव हो जाता है, तो हम गिर जाते हैं। येसु के ज़मीन पर बार-बार गिरना असीमित दुख-दर्द को दर्शाता है। वास्तव में कलीसियाई इतिहास के प्रारंभिक समय में क्रूस रास्ते में सात स्थानों में प्रभु येसु के गिरने का ज़िक्र था। तीसरे, सातवे और नौवें स्थान के अलावा, चौथे, पाँचवें, छठवे, आठवे स्थानों पर भी येसु के क्रूस के नीचे गिरने की बात आती थी। मानना यह था कि एक बार जब येसु क्रूस के नीचे गिरते हैं, तब माता मरियम उनकी ओर दौड कर आती है; एक बार जब येसु क्रूस के नीचे गिरते हैं, तब किरीन निवासी सिमोन उनकी मदद करता है; एक बार जब येसु क्रूस के नीचे गिरते हैं, तब वेरोनिका उनका चेहरा पोछती है और एक बार जब येसु क्रूस के नीचे गिरते हैं, येरूसालेम की स्त्रियाँ उनके लिए विलाप करती हैं। बाद में इन मुलाकोतों प्राथमिकता देने के लिए येसु के गिरने की बात को हटा दिया गया।

सूक्ति 24:16 में पवित्र वचन कहता है, “धर्मी भले ही सात बार गिरे, वह फिर उठेगा, जबकि दुष्ट विपत्ति में नष्ट हो जाते हैं”। इस वचन का प्रभाव क्रूस-मार्ग पर पडा होगा। यह वचन हमें आशा प्रदान करता है। हम आशा के तीर्थयात्री हैं। हमें हमेशा आशावान बने रहना चाहिए।

हम इस भक्ति-कार्य से कुछ विशेष प्रेरणा पा सकते हैं। वास्तव मंब येसु का क्रूस रास्ता पिलातुस के भवन से प्रारंभ नहीं हुआ था। जब वे मानव शरीर धारण कर इस दुनिया में आये उसी समय से उन के क्रूस का रास्ता शुरू हुआ। उनका जीवन ही क्रूस का रास्ता था। जब वे माता मरियम की कोख में थे उस समय, माता मरियम को जो यातनाएं सहनी पडी, उन यातनाओं में वे सहभागी थे। उनके पति यूसुफ़ उन्हें चुपके से त्याग देने की सोच रहे थे। उनको फिर नाम लिखवाने के लिए बथलेहेम जाना पडा। वहाँ बालक को जन्म देने के लिए जगह नहीं मिलने पर उन्हें उन्होंने एक गौशाले में जन्म दिया। वहाँ से फिर मिस्र देश भागना और वहाँ प्रवासी के रूप में जीवन बिताना पडा। यह सब येसु के क्रूस का ही हिस्सा था। यूसुफ़ और मरियम का परिवर गरीब था। एक गरीब परिवार में एक साधारण बच्चे को जिन कठिनाइयों का सामना करना पडता है, उन सब कठिनाइयों का उन्होंने सामना किया। यह सब येसु के क्रूस मार्ग का ही हिस्सा था। उनके सार्वजनिक जीवन में भी उन्हें बहुत से संकटों का सामना करना पडा। कई लोग उनकी बातों को समझ नहीं पा रहे थे। कभी-कभी उनकी बातों को हमेशा सुनने वाले शिष्य भी उनको समझ नहीं पाते थे, उन पर विश्वास नहीं कर पाते थे। कई बार उनको वे गलत समझते थे। उन्होंने यहाँ तक कहा कि वे बेलज़ेबुल की शक्ति से ही अपदूतों को निकाल रहे थे। कभी लोग उन पर पत्थर मारना चाहते थे, तो कभी पहाडी की चोटी से उनको नीचे गिराना। शास्त्री और फरीसी डट कर उनका विरोध करते थे। इस प्रकार देखा जाये, तो उनका पूरा जीवन ही एक क्रूस रास्ता था।

पिलातुस के भवन से कलवारी पहाड तक की यात्रा उनकी क्रूस यात्रा का आखिरी पडाव था। मारकुस 8:34 में हम पढ़ते हैं, “ईसा ने अपने शिष्यों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी अपने पास बुला कर कहा, "जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले।” हम न केवल भक्ति भाव से क्रूस रास्ते की विधि में भाग लेते हैं, लेकिन अपने जीवन के दैनिक क्रूसों को उठा कर येसु का अनुसरण करना भी सीखें। उसी में हमारा कल्याण है। प्रेरित-चरित 14:22 में हम पढ़ते हैं कि पौलुस “शिष्यों को ढारस बँधाते और यह कहते हुए विश्वास में दृढ़ रहने के लिए अनुरोध करते कि हमें बहुत से कष्ट सह कर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना है।”

एक विश्वासी को क्रूस रास्ते के समय प्रभु ईश्वर से अपने जीवन के दैनिक क्रूस को उठा कर चलने की क्षमता और धैर्य की कृपा माँगनी चाहिए। येसु ने जिस प्रकार अपने दैनिक जीवन की कठिनाइयों का सामना किया उसी प्रकार अपने जीवन की कठिनाईयों का सामना करने कृपा हमें माँगना चाहिए।

✍ - फ़ादर फ़्रांसिस स्करिया